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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
बिन-माँगे पान उठाकर सामने न पेश कर सका । उसने पूछा, “पान दूँ, बाबूजी ?”
मैंने उसकी तरफ देखकर भर्त्सना के स्वर में कहा, "नहीं ।" वह मुस्कराता न रह सका । पर आँखें मानो अब भी उसकी रस से भरी रहीं । उसने कहा, "बाबूजी, आज बिना पैसे का ले लीजिए ।"
मैंने गुस्से से कहा, "नहीं लेते। कह दिया एक बार । अब तुम जाते क्यों नहीं ?"
उसने कहा, "बाबूजी, नाराज हो गये ?"
मैंने कहा, जाओ !”
" नाराज हो गया, मैं पान नहीं लेता । बस, तुम
वह चला गया ।
: ३ :
जिन ऋषियों के क्रुद्ध दृष्टि-निक्षेप से आग लग जाती थी, वह जाने कैसे होते होंगे। मेरा क्रोध तो उस पानवाले को शरारत से बाज नहीं ला सका ।
उस दिन मेरे तन में आग लग गई, जब मैंने उसे अपने घर के दरवाजे पर देखा । ऊपर से मेरी भतीजी झाँक रही थी, आसपास भी तमाशा देखने शौकीन खड़े हो गये थे, और वह पान तैयार कर रहा था। मेरे देखते-देखते उसने तैयार करके तीनचार बीड़े एक पास खड़े लड़के को दिये और कहा, "बेटा, इन्हें ऊपर दे आओ ।"
मैं जल्दी-जल्दी घर में प्रविष्ट हो गया । इस पानवाले ने जो मुझे देख प्रसन्न होकर कहा, "बाबूजी आ गये", सो मैंने जैसे सुना नहीं । उस पान लिये हुए लड़के से पहले ही धम-धम ऊपर पहुँच कर पुष्पा को बुलाकर कहा, "पुष्पा, यह क्या है ! यह यहाँ