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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग नीचे आता हूँ तो अचरज में रह जाता हूँ। शकल उसकी वही है, पर पहचाना नहीं जाता । मैले-कुचैले कपड़े पहने हैं, धोती घुटने से नीचे नहीं पहुँच पाती। टोपी का भी कुछ ठीक ठिकाना नहीं है।
उसने कहा, "बाबूजी पहचाना नहीं ?" मैंने कहा, "पहचाना । पानवाले हो । पर यह क्या हाल है !"
उसने कहा, "बाबूजी, हाल कुछ नहीं है। मैं अभी लाहौरअमृतसर से आ रहा हूँ। अब दक्खन की तरफ जाऊँगा। घण्टे डेढ़-घण्टे में उधर की गाड़ी जाती है । आपसे एक जरूरी काम है, इससे चला आया।"
मैं बड़े असमन्जस में पड़ गया। ऐसे वक्त, ऐसी हालत में, यह अपना जरूरी काम लेकर मेरे पास चला आ रहा है, जाने यह क्या नया बवाल है। मुझसे इस आदमी का क्यों कोई काम होना चाहिए। कहा, “क्यों, पान का काम छोड़ दिया क्या ?" .
उसने आश्चर्य से कहा, "नहीं जी, छोड़ क्यों दूँगा ? छोड़ कैसे सकता हूँ ?" ___ "फिर कुछ बहुत नुकसान टोटा तो नहीं आ गया ?" ।
उसने कहा, “ऐसा बहुत टोटा भी नहीं आया.। फिर कोई बहुत नफे के लिए मैं थोड़ा ही करता हूँ ?"
जाने कैसी बात करता है यह। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। ऐसी दुर्गति में फिर यह क्यों है ? पूछा, "फिर क्या बात है ?"
बोला, "बात जी, कुछ नहीं है। मैं आपके पास एक बड़ी विनती लेकर आया हूँ । बस और कुछ बात नहीं है।"
मैंने समझा, अब बला आई । जरूर कुछ रुपया-पैसा माँगेगा। ऐसी हालत में इन्कार भी कैसे किया जायगा, और इसे दे भी