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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
चढ़ाने और नीचा गिराने की चेष्टा करता है। मैं मैं हूँ, इसलिए, तुम से बड़ा हूँ । इसलिए मेरा कुर्ता भी तुम से बड़ा है । इसलिए मेरी गाली भी तुम से बड़ी है ।.... इस अहङ्कार की हद नहीं !... बुरी बला है यह, एक आफत |
पास ही एक बढ़िया - सी कोठी दिखाई दी, और सचेत होकर इक्के वाले ने कहा, "बाबू, ये इण्डियन परेस है ।" मैंने मन में दोहराया, “इण्डियन प्रेस !” "बाबू, छापेखाना है । किताबें छपत हैं । "
मुझे यह धृष्टता उसकी अच्छी नहीं लगी कि मुझी को समबैठता है, प्रेस क्या चीज होती है । मैंने कहा, "इक्के को बढ़ाओ जल्दी से, देर हो रही है ।"
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इक्को बढ़ा और मैंने सोचा, “इण्डियन प्रेस ! खूब तो चीज़ है । वही न जहाँ ज्ञान धड़ाधड़ कल पर छपता है, जिल्दों में बँधता है और जहाँ फिर उसके खूब दाम उठा लिये जाते हैं ! नया पुराना, हल्का - भारी, स्कूली स्कूली, शास्त्रीय-अशास्त्रीय, - सब प्रकार का ज्ञान पक्की मजबूत जिल्दों में सिलकर, बँधकर, एजेन्सियों में पहुँचता है और परीक्षा की मार्फत डिग्रियों के और ज्ञान के भूखे जनों को ऐसे सुभीते से मिल जाता है जैसे घाव वालों को हर अस्पताल से मरहम का फाया । इस प्रकार ज्ञान का वितरण होता है, पुण्य का अर्जन होता है और धन का समय होता है और इस अर्जन-संचय के मार्ग में, ज्ञान नामक पदार्थ के व्यवसाय द्वारा कोटि-कोटि संपादक, लेखक आदि, उक्त पदार्थ की उत्पत्ति के श्रमीजन, सहज रूपसे पल जाते हैं। और वह कलें बिजली के जोर से ऐसी भूत की तरह चलती हैं कि उनके पेट भरने के लिए अपरिमित ज्ञान को उगते रहना ही चाहिए। कहीं न कहीं से मजदूर लोग खोद-खोद कर ज्ञान लायें, उगलें, उड़ेलें, कि जिससे कल चलती रहे, और उसमें लगा रुपया आमदनी देता रहे । और ज्ञान बढ़