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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] दिया । वह अपने उसी छैला को देख रही थी जो उसे देख रहा था
और मुस्करा रहा था। ____ मैंने देखा, “वह तो गँवार है, और मैं बहुत अच्छे कपड़े पहने हुए हूँ, और एकदम सुन्दर हूँ, तब क्या मैं एक निगाह का भी हकदार नहीं हूँ ?"
"बाबूजी, सुरती?"
अब उसने मुझे देखा, वैसे ही जैसे एक दीवार देखे, तसवीर देखे, बिना भाव, बिना चितवन ।
मैंने कहा, "नहीं।" उसने कहा, "सुरती नहीं ?"
रास्ता चलते इक्के से उतर कर जो उसकी दुकान पर पान लेने आया है वह सुरती नहीं खायगा, इस पर उसे जैसे विश्वास नहीं हुश्रा, अचरज हुआ। ___ मैंने कहा, "नहीं।"
मुस्कराने से वह अब हँस पड़ी। जैसे मैं उसके सामने शून्य हो गया, बस वह छैला रह गया; और एक नई यह खबर रह गई कि एक आदमी ऐसा भी है जो पान माँगता है पर सुरती नहीं खाता ।
और वह हँस पड़ी। मेरी समझ में नहीं आ सका कि यह दुकानवाली औरत जो इस अकर्मण्य असुन्दर युवक के सामने इस प्रकार सहज प्राय और सस्ती होकर अपने को प्रकट कर रही है, वही मुझ, जैसे सुपात्र युवा के सम्बन्ध में एकदम ऐसी संयम-शील किस भाँति है, कि मेरे अस्तित्व तक से बेखबर है।
ने कहा, "बहुत हँस रही हो !" वह खिल-खिला कर हँस पड़ी। बोली, "बाबूजी, बाहर रहते हो कहीं ? यह जो श्रादमी खड़ा है, एक ही बदमाश है इस शहर में । मुझे रोज छेड़ने को आ पहुँचता है। बाबू, तुम जानो मत कहीं, मुझे इससे बचा दो।"