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जनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] अपने जीवन-भर, किसी भाँति न समझ सकी कि वह व्यक्ति, जिसके साथ लोग कहते हैं उसका ब्याह रचाया गया था, और लोग कहते हैं जो उसका पति है, उसका पति या उसका कोई भी कुछ कैसे हो सकता है ? कृष्ण की पत्नी बनकर, अपना सब कुछ कृष्ण का बनाकर, उसने मानो दुनिया के अस्तित्व को ही अपने सामने से मिटा दिया। पर...रेल का स्टेशन कहाँ हैं, कितनी दूर है ?...
मैंने, कहा "क्यों रे, स्टेशन नहीं पाया ?" बोला "बाबू, जेइ मोड़ पार अस्टेसनई है।"
मैंने देखा-ईसाइयों का मिशन है, बौद्ध भिक्खुओं का भी कुछ है, और वहीं नीचे एक लोहे के थाल में मक्खी उड़ाता हुआ जो मूंगफली बेच रहा है, उसका एक लड़के से झगड़ा मचा है।
और एक दर्जी की दुकान है, एक सोडावाटर की दुकान है और कतार में कई दुकानें हैं। और एक जगह पाँच-सात कुली इकट्ठ होकर सुल्ले का एक-एक दम लगा रहे हैं, और जो एक ओर सड़क पर पाँच-छ।, ईसाई मिसें जा रही हैं, उन्हें देखते जाते हैं। और कुछ कालिज के लड़के अमरीकन कॉलर की कमीजों में बेंचों पर बैठे लेमन पी रहे हैं। एक के हाथ में टैनिस का बल्ला है, दूसरे के में हॉकी । स्टेशन अब आया।
इक्के वाले ने इक्का थमाकर कहा, "बाबू, कुली ." मैंने कहा, "हाँ कुली..."
दो-तीन कुली दौड़ आये और लड़ने लगे। आखिर, एक ने बिस्तर उठाया, एक ने ट्रंक।
"बाबू, डौढ़ा दरजा ?" मैंने देखा, मैं इन कुलियों को यह नहीं कह सकता, कि चौथा