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जैनेन्द्र की कहानियां [छठा भाग] पड़ने को भूखी रहती हैं, और गालियों से भरी रहती हैं।...और भारत-धर्म-महामण्डल का कार्यक्षेत्र विशाल है, और कार्यालय भी बारौनक है।...
मैंने कहा, "क्यों रे, यह इक्का और यह घोड़ा ! तभी तैने चिल्ला-चिल्ला कर मुझे अपने इक्के पर बुलाकर बिठाया। गाड़ी न मिली तो तुझे धेला न मिलेगा।" ___इक्के-वाले ने चाबुक सर्राया और एक कस कर दिया, और एक अति घनिष्ठ गाली दी। घोड़े ने दुलत्ती झाड़ी और फिर दौड़ पड़ा । तब इक्के वाले ने कहा, “वाह मेरे बेटे ! और अपने बेटे के पुढे पर प्यार के चार थपके दिये ।" ____ मैंने देखा, "चाबुक की चोट पर घोड़ा एक बार खीझ में दुलत्ती झाड़ता है। तब क्या मैंने यह भी नहीं देखा कि प्यार की थपकियों पर एक बार ही उसकी देह में हर्ष की सिहरन दौड़ जाती है, खड़े कान खड़े रोंगटों की तरह काँपते-से हैं और भाग की चाल में उल्लास आ जाता है ? उसने क्या नहीं सुन लिया है--
और वह उछलता हुआ पीछे इक्के के बोझ को खींचता खुशी से भागता चला जा रहा है।
सोचा, "चाबुक की चोट क्या झूठ है ? नहीं तो फिर क्या प्यार की थपकियाँ झूठ हैं ? एक ही इक्के वाला अपने घोड़े को कोड़ा मारता है, और बेटा कहकर प्यार करता है। इसमें कौन बात झूठ है, और कौन सच है ? किस बात में वह इक्के वाला अधिक प्रेकट, निकटता से घनिष्ठ और प्रकाशित है ?"
मैंने इक्के-वाले को अपने स्थान से देखा, चेहरे पै रेखाएँ छाई थीं जिनमें जानना असम्भव था कौन क्या प्रकट करती हैं और कौन क्या । माथा कम था और भौंहे भारी-घनी होकर आँखों पर छज्जे-सी छाई थी और ठोड़ी की नोक लटकती जा रही थी।
मैंने कहा, "कब से बनारस रहते हो ?"