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इक्के में
. हठात् विदा ली, और झटपट इक्के पर सवार हो मैं चल पड़ा।
चलते इक्के में अकेला बैठा सोचने लगा, “तुम भी श्रादमी हो । वक्त पर कुछ कर सकते ही नहीं, फिर सोचते हो, क्यों नहीं कर सके । बैठे सोचा करो, कुछ नहीं, तुम निकम्मे हो। हाँ तो, सीधे मुँह उठाकर चलते चले आए, यह नहीं कि गुरुजनों के चरन छू चलो।"
और इक्का चल रहा था । और इक्केवान अपने मरियल घोड़े को टिक-टिक करता चला रहा था । और घोड़ा सैकिंड दो सैकिंड इक्के के बोझ को जरा जल्दी खींचता, फिर अपनी रफ्तार पर
आ जाता। और बनारस की सड़क और गली इसी भाँति पार होती जा रही थी।
सोचा-यह क्या बात है जी, कि कहीं जाओ और फिर वहाँ आ जाओ। पहले तो कहीं जाओ हो क्यों और अगर चल ही पड़े और पहुँच ही गए तो फिर वहाँ से आ जाना क्यों जरूरी हो जाना चाहिए? नहीं नहीं, सब गड़बड़ है। यह सब तमाशा है