________________
जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] 'बन्दे विष्णु भवभय हरम सर्व लोकेअनाथम् ।'
उसके काफी देर बाद तक आँखें उनकी मुंदी रहीं। फिर जब वे खुली, मालूम होता था वे नई-ही-नई इस दुनिया की माया पर खुली हैं और यह माया उनकी कोरी दृष्टि से एकदम नीचे है ।
उन्होंने मेरी ओर देखकर कहा, "आपने यह पुस्तक देखी है ?" और जेब में से वह पुस्तक निकाली। मैंने पुस्तक का नाम देखा'तत्त्वचिन्तामणि ।' वह मेरी बहुत ही रुचि की पुस्तक थी। एक बार देखकर मैंने उसे अपने स्वाध्याय की पुस्तक बनाना चाहा था। लेकिन उसी पुस्तक को उनके हाथों से अपनी ओर बढ़ती आती पाकर मुझे असमञ्जस हुआ। उस पुस्तक को उस समय हाथ में लेकर उलटना-पलटना और उसकी प्रशंसा करना मुझे रुचिकर न हुआ। मैंने कहा, "जी हाँ, आपको इस पुस्तक में रस मिलता है ?" ___ बोले, "अपूरब पुस्तक है। आपने 'कलियान' पत्तर देखा है ! गोरखपुर के ये 'कलियान' वाले लोग बड़ा उपकार का काम कर रहे हैं, साहब!" ___मैंने कहा, "जी-हाँ, जी-हाँ ।...आप संस्कृत तो खूब जानते होंगे ?
बोले, "अजी नहीं साहब । संस्कीरत जानते तो नहीं। लेकिन देवभाषा तो साहब, वही है। और उसमें कितना मिठास है, देखिए
“सान्ताकारंग भुजगसेनंग..."
और दो-दो बार दुहराकर श्लोक के पूरे चारों चरण उन्होंने मुझे फिर सुनाये।
और भी गहन तत्त्व की और दर्शन-भक्ति की. बातें वह मुझसे करते रहे। गनीमत यही थी कि मुझे पास ही उतरना था। मेरा स्टेशन आया और मैंने उतरते हुए सज्जन से विदा ली।