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एक टाइप
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दीखता था और पचास-पचपन के होने पर भी उनके चेहरे पर और कदाचित हृदय पर भी विशेष रेखाएँ न बनी थीं ।
मैंने तब हठात् अपने तकिए के नीचे से अखबार झपट कर खींच लिया । उसमें आँख चिपका, में तकिए के सहारे सीधी तरह लेट गया । पलकों पर सपने से आने लगे और मैं सो गया ।
मुझे प्रतीत हुआ, जैसे मैं कहीं बाग में हूँ और ऊँचे-ऊँचे पेड़ हैं और बहुत-सी मधुमक्खियाँ भनभन भनभन कर रही हैं। मैं दोनों हाथों से उन्हें हटाना चाहता हूँ, पर उनकी भनभनाहट दूर नहीं होती । वे इकट्ठी की इकट्ठी मिलकर चारों ओर घुमड़ रही हैं। मुझे भय है, वे मुझे काटेंगी। मैं हटाना चाहता हूँ, वे नहीं हटतीं । मैं संकट में हूँ ।...
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तभी सहसा मेरी आँख खुली। मैंने पाया, सज्जन अपनी सीट पर बैठे आँख मूँदे कुछ गुनगुना रहे हैं। मुझे मालूम हुआ वह भगवान् में लीन हैं । वह जैसे मचल मचल कर कहना चाह रहे हैं
“सान्ताकारंग भुजकसेनंग पदमनाबं सुरेखम् "
वह खूब भावासिक्त हैं, आर्द्र हैं, और उनका सिर रह-रहकर भक्ति में डोल रहा है
“विसित्राधारं गगनसदिसां मेघवर्णन सुभांगम् । ”
मैं फिर सोने की चेष्टा करने लगा। लेकिन श्लोक के दुहराए जाते चरण रुक-रुककर मेरे कानों पर लगते थे । वे किसी भी भाँति प्रीति-वर्द्धक नहीं थे। और मैं सोचता था - भक्ति मौनावलम्बी हो तो क्या उसकी कम सुनाई होती है ? लेकिन श्लोक तो पूरा होता ही रहा
'लक्ष्मीकान्तं कमलनैनं योगिबिन्ध्या सुनगरम् ।' फिर चौथा चरण भी आया