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एक टाइप
मेरठ स्टेशन से जब रेल चली तब देखा-एक पकी आयु के सज्जन दो बेंचों के बीच से अपनी राह बनाते हुए मेरी बिछी दरी के पास की खाली जगह को निगाह में रख कर मेरी ओर बढ़े पा रहे हैं। ___ "क्या मैं यहाँ बैठ सकता हूँ ?"
कहा, और दरी के कोने को जरा उठा कर रूमाल से उस जगह को झाड़ते हुए मैरे उत्तर की बिना अपेक्षा रखे वह वहाँ बैठने लगे। ___ मैंने कहा, "फिक्र न कीजिए, इसी पर बैठिए।" और उनके हाथ से दरी का छोर लेकर मैंने फिर ठीक से बिछा दिया । सज्जन बैठ गये।
बैठकर अपने चश्मे के मोटे लैन्सों में से उस कम्पार्टमेण्ट में अवस्थित नर-नारियों को वह निस्संग भाव से देखने लगे।
कुछ लोग अपने में व्यक्ति नहीं होते, वे एक टाइप के प्रतिनिधि हुआ करते हैं। उन्हें अपने जातिगत व्यक्तित्व की इकाई समझिए। वह रामलाल हैं, या श्यामलाल हैं, या शीतलप्रसाद हैं, या ये तीनों न होकर चौथे नाम वाले हैं । इससे कोई फर्क नहीं थाता । ये सब
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