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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] दारोगा ने कहा, "उस ख्याल का तो मुझे भी ख्याल रहता है। ."तो चलिए।"
दोनों बैठक से निकल कर चले । जब साधु ने देखा-उन्हें 'अन्दर' ले जाया जा रहा है, तो उसे तनिक विस्मय हुआ, संकोच भी। पूछा, "कहाँ ले जा रहे हो ?..." : दारोगा ने कहा, "चलिए । फिक्र न कीजिए। आपके लिए कहीं रोक न होगी। आप तो उसके हैं, जो सब जगह है।" __ महिला ने देखा, तो विस्मय और हर्ष का ठिकाना न रहा । जो चाहती थीं, वह सब यों अनायास पति में कब और किस तरह घटित हो गया !
उन्होंने जिस कृतार्थ और धन्य-भाव से खिलाया, वह वर्णन में नहीं पा सकता।
साधु ने मानों उन्हें उनका परम इष्ट प्रदान किया। उन्होंने जैसे पति को और नये सिरे से घनिष्ठ रूप में प्राप्त किया।
भोजन के बाद पति ने कहा, "जानती हो, इन्होंने मुझे क्या बताया है ? इन्होंने बताया है कि शान्ति वह रक्खो जो टूटे नहीं, जो दूसरे पर निर्भर होकर न रहे, न किसी बाहरी घटना पर, न व्यक्ति पर, जो खुद में पूरी हो और सर्वथा यथार्थ हो ।"-और साधु से पूछा-"क्यों, यही न ?"
पत्नी ने कहा, "तुमने इनसे माफी माँगी ?" साधु कुछ कहने को हुआ।
पति बीच में बोल पड़े, “यह तो कहते हैं मेरे हाथ न माझी है, न नाराजी । यह कहते हैं, जो सबका मालिक है, उससे ही माँगो, उससे ही लो।" __साधु ने कहा, "हाँ, सब लेना-देना सीधे उसी से रखना चाहिए, वह सब दुःख हरता है।"
पत्नी ने कहा, "लेकिन गुनाह बड़ा है। तुम बाबा, हमारा ध्यान