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साधु की हठ
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कर हमें और मजबूती से मिलाने के लिए ठीक संयोग से यहाँ आ पहुँचे, अब मुझे इसमें सन्देह नहीं मालूम होता ।”
साधु ने कहा, "यह तो कहना कठिन है कि क्या किस मतलब से होता है । क्योंकि परमात्मा का राज्य इतना बड़ा है और हम उस के जर्रे के जर्रे से भी इतने नन्हे हैं कि उसके इन्तजाम को नहीं समझ सकते; लेकिन हम मजबूती से दिल में यह रख लें कि सब परमात्मा करते हैं और वह दयालु हैं। और जो कुछ होता है, उसे चेष्टा करके अपनी उन्नति के अनुकूल रूप में देखें और समझें । वासना को बीच में डालकर अपने को तंग न करें। बाहर से बात में कुछ भी फर्क नहीं पड़ा; लेकिन परसों से मेरे आने को जिस रूप में देखते थे और अपने को तंग करते थे, आज वैसे नहीं देखते और खुश हो यानी मुझ में, खुद में न तो तुम्हें खुश करने की कोई सिफ्त है और न रंज में डालने की । लेकिन फिर भी तुम रंज में थे और अब खुश हो। मैं वही हूँ, मेरा आना वैसा ही है, फिर भी तुम्हारे नजदीक बहुत भेद पड़ गया । इसलिए इस विश्वास में मजबूती से निवास करोगे कि सब कुछ वह करता है, तो वाहरी चीज़ ऐसी नहीं रह जायगी, जो तुम्हारी शान्ति को तोड़ सके; तब तुम्हारी शान्ति ऐसी निर्मल, दृढ़ और प्रकृतिस्थ हो जायगी ।..."
इतने में भोजन के लिए बुलाहट हो गई । दारोगा ने कहा, " आपको मेरे पास बैठकर खाने में एतराज़ न होगा, मुझे उम्मीद है।"
साधु ने कहा, “एतराज तो मुझे किसी के भी साथ बैठकर खाने में होना चाहिए । झोली में डालकर ले जाने और अपने स्थान पर खाने की ही आदत मुझे पसन्द है; लेकिन आज मैं तुम को अपने इस एतराज से नहीं डराऊँगा । हाँ, खाने की चीजों में कुछ ख्याल रखता हूँ ।"
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