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२४ जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग]
दारोगा ने कहा, "अच्छा, मुझे माफ कर सकते हो ? मैंने तुम्हारी तरफ बड़ा गुनाह किया है।"
साधु ने कहा, "माफ़ तो वही करता है । और सच्चे जी से उससे माफी माँगी नहीं कि उससे पहले ही माफ कर देता है। सच यह है कि श्रादमी खुल कर माफी तभी माँग सकता है, जब वहाँ से उसे माफी मिल चुकी होती है। और मैं ! आज कितना खुश हूँ, कितना शुक्रिया मानता हूँ उसका, कैसे कहूँ !" ___ दारोगा ने कहा, "आप इतने यहाँ बैठे, मैं अभी आता हूँ।" कहकर अन्दर गये।
मानो अब ऐक्य में जो कुछ बाधक था, सब-कुछ बह गया है। स्रो से कहा, "दो दस्तरखान बिछाओ और अपने कमरे में जल्दी तैयारी करो। उन्हें ज्यादा फुरसत नहीं है।" ___ पत्नी, आनन्दित-चकित, न समझ सकी, क्या बात है, कौन हैं; लेकिन एक परिवर्तन-जो जैसे उसके सौभाग्यविधायक ने उस के पति में सम्पन्न कर दिया है, वह कैसे छिप सकता ? पूछा, "ऐसे कौन हैं ?"
उत्तर मिला, "कौन-वौन नहीं, जल्दी करो। पन्द्रह मिनट में हम आते हैं।"
पत्नी उछाह के साथ काम में लगी, जो उछाह तर्कातीत है, जो जैसे भीतर से उछला आ रहा है। _____ कमरे में आकर साधु से कहा, "आपको भीख नहीं दी जायगी। दावत दी जायगी । मैं समझता था, आप हर्ज और गड़बड़ पैदा करने यहाँ आ पहुँचे हैं । जैसे हम दोनों में फर्क डालना आपका काम है; लेकिन अब और देखता हूँ। जैसे वह फर्क पड़ना हम में ज़रूरी था, जिससे उस फर्क के जरिये हम एक-दूसरे को और अच्छी तरह देख सकें, समझ सकें और पा सकें। आप फ्रक डाल