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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] "मैं न दूं तो..." - "भगवान् की मर्जी।" "भगवान् की मर्जी ! मेरी मर्जी नहीं ?" "तुम्हारी मर्जी में भगवान की ही मर्जी है।" “मैं न दूँ, तो तुम भूखे रहोगे?" "भगवान् की मर्जी पूरी होगी।"
"लेकिन मैं तुमसे पूछता हूँ, मेरे घर आकर क्यों तुम बखेड़ा करते हो? और घर कम हैं, जो तुम्हें मेरा ही घर सूझा है ?" ।
"फकीर के घर आने को क्यों बखेड़ा समझते हो ? फकीर के लिए जैसा तुम्हारा घर, वैसा औरों का घर।"
"नहीं, हिन्दुओं के यहाँ बहुतेरे घर हैं..."
"फकीर सब का होता है और फकीर के सब हैं । हिन्दूमुसलमान दुनियादारी की बातें हैं, सच्ची बात में हिन्दू-मुसलमान क्या ?" __"लेकिन तुम यह क्यों नहीं देखते कि मेरे घर तुम्हारे आने से अड़चन पड़ती है, झंझट पैदा होती है ?"
"क्यों अड़चन पड़ने दो, क्यों झंझट पैदा करो ?"
"क्या तुम हम पर रहम रख कर अपनी जिद नहीं छोड़ सकते ?"
"यह झूठा रहम होगा। और मेरी अगर जिद भी हो, तो तुम्हारा इसमें नुकसान क्या ?"
"देखो, तुम्हारे पाने के दिन ही औरत पर मेरा हाथ छूटा । तबसे हम एक दूसरे से ठीक बोलने लायक नहीं रहे । तुम लौट जाओ, मैं कहता हूँ।" ___ "यह ठीक है। इसीलिए मैं आता हूँ। देखू, कबतक मैं अपने को इस लायक बना पाता हूँ कि मुझसे तुम्हें गुस्सा न हो।"
"अच्छा यहाँ पाओ...."