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माधु की हठ
२३ साधु को साथ लेकर वह अपनी बैठक में आ गये। "बैठो..."
साधु एक मोढ़े पर बैठ गया। वह भी एक कुर्सी पर बैठ गये। साधु ने कहा, “एक घंटे के बाद मुझे लौट जाना होगा । इसका ख्याल रक्खें।"
दारोगा ने कहा, "मेरी यह समझ में नहीं आता कि तुम क्यों हमारे घर का अमन तोड़ने पर तुले हो और क्यों किसी को तुम कुछ-न-कुछ देने को लाचार करते हो। अगर कोई कुछ नहीं देना चाहता, नहीं दे सकता, तो तुम्हें इससे क्यों ज्यादा सरोकार होना चाहिए? यह मैं इसलिए कहता हूँ कि तुम समझ की बातें करते हो।"
साधु ने कहा, "जो शान्ति, फकीर के आने या चाहने पर टूट जाय, वह मजबूत काफी नहीं हुई; इसलिए उसकी कितनी कीमत हो सकती है ? और मेरी भीख की माँग कितनी है ? दो टुकड़े नहीं दे सकते, न दो, मेरे लिए दिल की मुहब्बत ही बहुत है। वह पा लूँगा, तो समझंगा जो चाहिए था, पा लिया। रोटी तो पेट के गढ़े को भरने और इस बदन को जीता रखने के लिए है, वह भी मुहब्बत के साथ न मिली, तो क्या मिली? और मुहब्बत मिल गई, तो फिर रोटी की क्या बात है. ? इस मुहब्बत का तकाजा तो मैं सबसे करता हूँ और सबसे कहेगा। इससे बरी मैं अपनी तरफ से तो किसी को न कर सकूँगा । मेरे लिए तो दुनिया में यही एक सरोकार रखने के लिए चीज़ है । इसी की मुझे जिद है।"
दारोगा निरस्त्र हो होगो बजैसे पिघलने भी लगे । लेकिन पूछा, “साधु कबसे हुए ? सच-सच बताना।" ___ साधु ने कहा, “यह सब जानकर क्या करोगे ? क्यों हुआ, इसके जवाब में यही कह सकता हूँ कि परमात्मा ने चाहा, इसलिए हो गया । उसने चाहा कि मैं सब जगह उसकी मुहब्बत का जलवा देखें , इसलिए मुझे इस राह पर लगा दिया।"