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साधु को हठ कर कुण्ठित हो गई। मस-पन्द्रह मिनट हो गये, तो पत्नी समझ गई, अब वह न आएँगे और अकेले भी न रहेंगे, वह अब यारदोस्तों में पहुँचेंगे। वह उस आशा के शव को मन में लेकर काम में लग गई। उन्हें सन्देह नहीं रहा कि जब तक बादल कोई टकर पाकर पानी बनकर बरसेगा नहीं, तब तक पति उसे दोस्तों की चुहल और कामों की व्यस्तता में ही उड़ा देना चाहेंगे। अनुताप, जो पति को खींच कर उनके चरणों में ला सकता था, जब उनके पैर ओठों से चूमे जाते आँसुओं से धोये जाते और वह प्रेम की सिसक में पानी बन कर बह जाता,-उस अनुताप से अब और ही राह से छुट्टी पाने की कोशिश की जा रही है, उसे आमोद में उड़ाया जायगा और शराब में बहाया जायगा। यह सोचती थीं और मन में कड़वाहट फैलती थी। वह अपने काम में लगी रहीं, जैसे पति की ओर से बिलकुल उदासीन हो । उनको छेड़ने या उनको मोड़ने की उन्होंने चेष्टा नहीं की, जैसे उस प्रकार की उन्हें चिन्ता या इच्छा नहीं है। चाहो तो और मार सकते हो; लेकिन मुझे तुमसे कुछ मतलब नहीं इस भाव से वह हरेक काम करने लगीं।
लेकिन अगले दिन आ पहुँचा वह साधु फिर । तब वह नारिसुलभ कोमलता, जो पति के दुराचार और दुस्साहस से ठेस पाकर भीतर बेकल हो रही थी, अनुरूप आधार पाकर व्यक्त होने लगी। उसने अपने को साधु के प्रति अनुकम्पा और उसकी रक्षा के प्रति व्यग्र सचिन्तता से भरा पाया । उसने इसीलिए साधु को ऐसे अनुरोध-पूर्वक चले जाने को कहा, लेकिन साधु गया नहीं। तब पति के प्रति जो कड़वाहट उसमें फैल रही थी, उसने साधु को ठहरने के निश्चय में एक संयोग देखा । कुछ ऐसा भाव कि हाँ, मैं बैठाती हूँ, कहें तो-कहें, करें-सो-करें-उसके भीतर गुदगुदी मचाता हुआ हुआ उठ आया। जैसे अपने प्रति अपने विश्वास और पति के