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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग ]
अविश्वास को, इस मौक़े को बीच में डाल कर आपस में लड़ाकर, अपनी विश्वसनीयता और अपनी हठ कायम करने की स्पर्धा कीसाह उसे हो आई । तब उसने साधु को बैठाने में सहमति नहीं, उत्सुक अभिलाषा प्रदर्शित की; लेकिन सो भी न हुआ । साधु भीतर नहीं बैठा, द्वार पर चला गया। फिर यही सोचकर उसे कुछ सुख मिला कि वह आएँगे, साधु को बैठा देखकर बिगड़ेंगे; लेकिन क्या कर लेंगे ? लेकिन साधु चला गया और वह नहीं आये | यह तृप्ति भी उसे न मिली । तब उसने सोचा कि उनके आते ही मैं सब कह दूँगी । कहूँगी कि मैंने उसे बैठने को कहा था और वह घंटा भर यहाँ बैठा रहा !
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आखिर खाने के वक्त वह आये । खा रहे थे, उसी समय पत्नी ने सूचना दी, “वह फकीर फिर श्राया था । "
वह उसी तरह मौन - पूर्वक खाने में संलग्न रहे । "... और मैंने उसे तुम्हारे लिए बैठाये रक्खा...." पति ने कहा, "उसके आने का क्या काम था ? उसकी शामत ही खींच लाई होगी।"
स्त्री ने कहा, "और मैंने इसे सब कुछ दिया..."
" तो मुझसे क्या बखानने बैठी हो ? जैसे बड़ा सबाब
किया ।"
"... लेकिन उसने कुछ नहीं लिया ।"
पति चुप ।
"और मैंने उसे यहाँ दरी बिछाकर बैठाया...'
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"
""तो मैं क्या करूँ ? बड़ी तारीफ का काम किया न ?” "लेकिन वह बैठा नहीं। वह दरवाजे के बाहर बैठा रहा ।” पति फिर चप हो गये । यह सब बातें ऐसी लगीं, जैसे उनके