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जैनेन्द्र की कहानियाँ [छठा भाग] ठहरने की राजी में राजी होकर यहाँ बैठने को कहती हूँ।बैठो-बैठो यों खड़े न रहो।"
साधु ने कहा, "दिक्कत उठाने से पहले मुझ से पूछ क्यों न लिया ? मैं यहाँ कैसे बैठ सकता हूँ ? मुझे तो दरवाजे पर ही बैठना होगा।"
और यह कहकर वह दरवाजे की ओर मुड़ लिया।
महिला अपनी आशा में इतनी निराश हुई कि बोल नहीं सूझा, देखती रहीं। साधु बाहर हो गया कि वह लौट आई और कार्य में व्यस्त होने की चेष्टा करने लगीं। __कई बार दरवाजे पर दिखवाया। साधु प्रकृतिस्थ प्रतीक्षा में बैठा था। और वह किसी-न-किसी काम में लगे रहने की चेष्टा कर रही थीं; लेकिन दारोगा आये नहीं। अब तो घण्टा भर होने
आया। उन्हें क्या हुआ, क्यों नहीं आये ? साधु को बड़ी दिकत हुई।
पाँच मिनट पहले ही नौकर साधु के यथावत् बैठा होने की खबर देकर गया था कि फिर से देखने भेजा गया। लेकिन अब वहाँ साधु न था। नौकर ने यह सूचना उन्हें लाकर दे दी। वह 'अच्छा' कहकर नौकर को विदा दे, हाथ का काम छोड़ कमरे में तनिक तीव्र गति से टहलने लग गई।
:४: दारोगा जल्दी क्यों नहीं लौट सके, इसका ठीक कारण बतलाना कठिन है । लेकिन घर जाने को जल्दी जी नहीं होता। जैसे घर में पत्नी का मुकाबिला होगा, सो कैसे होगा, मन का यह सोच उन्हें घर से दूर ही रहने को कहता है । क्रोध का नशा जब से उतरा, तब से तबीयत गिरी-सी रहती है । मन कुछ खाली-खालीसा लगता है, और वह सीधा होकर नहीं बैठ सकता, ठीक तौर