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इस पद्य में तर्क से पूर्व मीमांसा को कहा गया है ।
(६) बारहवीं शताब्दी के कलिकाल सर्वज्ञ प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य अनेकार्थ संग्रह में कहते हैं-तर्को वितर्के कांक्षायामूह कर्मविशेषयोः (कोड २, श्लोक ९। इस की व्याख्या अनेकार्थकैरवाकर कौमुदो में कहा है--तर्कप्रतिपादकशास्त्रमपि तर्कः । यथा यस्तर्क कर्कश विचार पदप्रचारः । __ (७) ईसा की चौदहवीं शताब्दी के गंगेश नवीन न्याय के मुख्य प्रवर्तक हैं । उनके पुत्र प्रसिद्ध विद्वान वर्धमान ने भी उदयनाचार्य के द्वारा प्रणीत न्याय कुसुमाञ्जलि की प्रकाश नामक व्याख्या के आरम्भ में कहा है
न्यायाम्भोजपतङ्गाय, मीमांसापारदृश्वने ।
गगेश्वराय गुरवे, पित्रेऽत्र भवते नमः ॥ और अन्त में कहा है
यस्तर्कतंत्र शतपत्रसहस्ररश्मिगंगेश्वरः सुकुविकैवरकाननेन्दुः। तस्यात्मजोऽतिविषमं कुसुमाञ्जलि तं,
प्राकाशयत् कृति मुदे बुध वधमानः ॥ यहां पर आरम्भ के पक्ष में जिस को न्याय पद से कहा है उसीको अन्त में तकशास्त्र कहा है।
(८) ईसा की तेरहवीं शताब्दी के केशवमिश्र ने गौतमीय और कणादीय न्याय का संक्षेप में ज्ञान कराने के लिये तक भाषा की रचना की। इसके आरम्भिक श्लोक में प्रन्थकार तर्क को न्याय कहते हैं। आरम्भ का पद्य हैबालोऽपि यो न्याय नये प्रवेश
मल्पेन वाञ्छत्यलसः श्रुतेन । संक्षिप्तयुक्त्यन्वित तर्कभाषा,