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जैनेतर परम्पराओं में अहिंसा कोई परिवर्तन नहीं होता है। वे चावल, रोटी, दूध, घी आदि के साथ मांस भी खाते हैं।' भले ही वह मांस बलि दिए गए पशु का हो अथवा साधारण तरह से मारे गए पशु का ही हो।
किन्तु इतनी बात अवश्य है कि अहिंसा का सिद्धान्त के रूप में सर्वप्रथम प्रतिपादन छान्दोग्योपनिषद् में ही होता है२-उस आत्मज्ञान का ब्रह्मा ने प्रजापति के प्रति वर्णन किया, प्रजापति ने मन से कहा, मन ने प्रजावर्ग को सुनाया। नियमानुसार गुरु के कर्तव्य-कर्मों को समाप्त करता हुआ वेद का अध्ययन करता हुआ ( पुत्र-शिष्यादि को ) धार्मिक क र सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अन्तःकरण में स्थापित कर शास्त्र की आज्ञा से अन्यत्र प्राणियों की हिंसा न करता हआ वह निश्चय ही आयु की समाप्ति पर्यन्त इस प्रकार बर्तता हुआ ( अन्त में ) ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है ; और फिर नहीं लौटता, फिर नहीं लौटता ॥१॥ ____ इसके पहले ही अध्याय ३ में आत्मज्ञानोपासना का वर्णन करते । हुए कहा है कि तप, दान, आर्जव (सरलता), अहिंसा और सत्यवचन इसकी ( आत्मयज्ञ की ) दक्षिणा है। ___ लघु उपनिषदों, जैसे प्राणाग्निहोत्रोपनिषद् एवं आरणिको. पनिषद् आदि में भी अहिंसा को सद्गुण या आत्म-संयम के प्रमुख साधन के रूप में प्रस्तुत किया गया है । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद में स्मृति, दया, शान्ति तथा अहिंसा को प्राणाग्निहोत्र यज्ञ करने वाले व्यक्ति की पत्नी की कमी का पूरक बताया है । इन गुणों के होने पर पत्नी, जिसका साथ यज्ञ में आवश्यक समझा जाता है, की 1. Vedic Age (Ed. R. C. Majumdar), p. 519.
Encyclopaedia of Religion and Ethics, Vol. I, p. 231. ३. तद्धतद्ब्रह्मा प्रजापतय उवाच प्रजापतिर्मनवेमनु: प्रजाभ्य. आचार्यकुलाद्वेद
मधीत्य यथाविधानं गुरोः कर्मातिशेषेणाभिसमावृत्य कुटुम्बे शुचौ देशे स्वाध्यायमधीयानो धार्मिकान्विदधदात्मनि सर्वेन्द्रियाणि सम्प्रतिष्ठाप्याहिंसन्सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्य: स खल्वेवं वर्तयन्यावदायुषं ब्रह्मलोकमभि
सम्पद्यते न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते । छा०उ० ८. १५. १. ४. अथ यत्तपो दानमार्जवमहिमा सत्यवचन मिति ता अस्य दक्षिणा: ।
छा० उ० ३.१७.४.
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