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आचरण का प्रतीक भी है। धर्म जीवन में जीने की वस्तु है और इस अर्थ में व्यवहार से पृथक् नहीं है। दूसरी बात यह भी कि धार्मिकजन और अधार्मिकजन में भिन्नता होती है, अतः धर्म किसी-न-किसी रूप में व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है, इसीलिए कहा गया है कि एक ही धर्म को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक्-पृथक् रूप से ग्रहण करता है।49
___ लोकसंज्ञा का अर्थ यह है कि सामान्यजन के या लौकिक-व्यवहार से प्रेरित होकर कार्य करना। जैन-आगम में मुनि को बार-बार यह निर्देश दिया गया है कि वह लोकसंज्ञा से प्रेरित न हो। इसका एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति लोक-व्यवहार से प्रेरित होता है। मनुष्य ही नहीं, अनेकों विकसित प्राणियों के व्यवहार में नकल की प्रवृत्ति पाई जाती है, जो इसी बात की सूचक है कि वे प्राणी दूसरों के व्यवहार से प्रभावित होकर इस प्रकार का प्रयत्न करते हैं। इसी प्रकार, ओघसंज्ञा भी एक प्रकार से सामान्य व्यवहार के अनुसरण को सूचित करती है। यह सत्य है कि जन-सामान्य के व्यवहार के पीछे कोई-न-कोई संज्ञा निहित होती है। ओघसंज्ञा, लोकसंज्ञा से बहुत भिन्न नहीं है। सामान्यता का तत्त्व सभी प्राणियों में पाया जाता है।
जैसे आहार सभी प्राणियों की मूलभूत आवश्यकता है और व्यवहार को प्रभावित करता है वैसे ही प्राणी की सामान्य प्रवृत्ति ही ओद्य संज्ञा है और वह कहीं न कहीं हमारे प्राणीय–व्यवहार को अभिव्यक्त करती है।
इस प्रकार, संज्ञाओं के किसी भी प्रकार के वर्गीकरण को स्वीकार करें, तो यह निश्चित है कि वे हमारे प्राणीय–व्यवहार को प्रभावित करती हैं। जैन आचार्यों ने संज्ञाओं के जो-जो भी रूप प्रतिपादित किए हैं, वे सभी हमारे व्यवहार के प्रेरक हैं। संज्ञा एक प्रकार की आन्तरिक अनुभूति है जो बाह्य-जगत् में प्राणीय-व्यवहार को अभिव्यक्त करती है। जिस प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान में मूल प्रवृत्ति और संवेग को व्यवहार का प्रेरक-तत्त्व माना गया है, उसी प्रकार जैनदर्शन के अनुसार संज्ञाएँ हमारे व्यवहार की प्रेरक हैं, इसमें किसी भी प्रकार का मतभेद नहीं है।
49 अणुसासणं पुढो पाणी; - सूत्रकृतांगसूत्र -1/15/11
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