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संज्ञा बौद्धिक-विवेक के रूप में -
जैनदर्शन में जीवों के प्रकारों के संदर्भ में हमें संज्ञी और असंज्ञी ऐसा वर्गीकरण उपलब्ध होता है। मनुष्य को संज्ञी-पंचेन्द्रिय कहा जाता है। संज्ञी से यहाँ तात्पर्य यह है कि जिसमें हेय, गेय और उपादेय की विवेक करने की शक्ति रही है। दूसरे शब्दों में, संज्ञी का अर्थ है- विवेकशील। सामान्य रूप से मनुष्य की परिभाषा हम इस रूप में करते हैं कि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है (Man is a rational animal), अतः विवेक की शक्ति को ही संज्ञा के रूप में स्वीकार किया गया है।
स्वाभाविक नियम तो पशु-जाति में भी होते हैं। उनके आचार और व्यवहार उन्हीं नियमों के अनुसार बनाए जाते हैं। वे आहार की मात्रा, रक्षा के उपाय आदि का निश्चय इन स्वाभाविक नियमों के सहारे करते हैं, लेकिन मनुष्य की विशिष्टता इसी में है कि वह स्वचिन्तन के आधार पर हिताहित का ध्यान रख ऐसी मर्यादाएँ निश्चित करे, जिससे वह अपने परम साध्य को प्राप्त कर सके।
काण्ट ने कहा है - "अन्य पदार्थ नियम के अधीन चलते हैं, मनुष्य नियम के प्रत्यय के अधीन भी चल सकता है। अन्य शब्दों में, उसके लिए आदर्श बनाना और उन पर चलना संभव है। 50
प्राणीय-जीवन में दो तत्त्व हैं - वासना और विवेक और ये हमारे व्यवहार को प्रेरित करते हैं। इस प्रकार संज्ञा बौद्धिक विवेक ही है।
जैन-आचार्यों ने संज्ञाओं में जो धर्मसंज्ञा का उल्लेख किया है, वह बौद्धिकविवेक ही है। विवेकपूर्वक आचरण करना ही धर्म है। धर्म का मूल विनय है और धर्म सद्गति का मूल है। इस प्रकार, संज्ञा की अवधारणा के मूल में वासना और विवेक-दोनों की ही सत्ता है। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह आदि संज्ञाएं जहाँ प्राणी के वासनात्मक-पक्ष को या उसकी दैनिक आवश्यकता को सूचित करती हैं, वही धर्मसंज्ञा उसके बौद्धिक-विवेक को सूचित करती है। यह सत्य है कि प्राणीय
50 पश्चिमी दर्शन, पृ. 164 51 धम्मस्स मूलं विणयं वदंति, धम्मो य मूलं खलु सोग्गईए। - बृहत्कल्पभाष्य, 4441
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