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द्वितीय अध्याय प्राकृत
प्राचीन भारत की भाषाएँ मुख्यतया तीन वर्गों में विभक्त की जाती हैं - 1. संस्कृत, 2. प्राकृत और 3. अपभ्रंश। इन भाषाओं पर हम दो तरह से विचार कर सकते हैं। या तो हम परम्परा की विचारधारा से सहमत हों और प्राकृत तथा अपभ्रंश का सम्बन्ध संस्कृत से जोड़ें या हम आधुनिक दृष्टिकोण से सहमत हों और संस्कृत से भिन्न इसकी सत्ता स्वीकृत करें। संस्कृत को हम प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के अन्तर्गत रख सकते हैं।
प्राचीन भारत की बोलियों का प्रतिनिधित्व पुराने साहित्य में सुरक्षित है। इसका ज्ञान हमें (क ) ऋग्वेद की भाषा एवं (ख) परवर्ती वैदिक ग्रंथों से होता है। परवर्ती संस्कृत का ज्ञान हमें (ग) महाकाव्यों की भाषा तथा (घ) परिष्कृत संस्कृत साहित्य की भाषा से होता है, जिसके आधार स्तम्भ - पाणिनि, पतञ्जलि, कालिदास तथा अन्य हैं ।
मध्यकालीन भारतीय भाषाओं का प्रतिनिधित्व पालि, प्राकृत एवं अपभ्रंश
मध्यकालीन भाषा का प्रतिनिधित्व पालि और प्राकृत करती हैं। इससे सभी काल की बोलियों की तुलना होती है और उनके ध्वन्यात्मक परिवर्तन का बोध होता है । यह परिवर्तन व्याकरण के कुछ गुणों पर भी हुआ है जो कि पुरानी भाषा से अपनी भिन्नता रखती थी। यह काल 1100 ई० तक माना जाता है । उसके बाद फिर भाषा की ध्वनियों में परिवर्तन होने लगा। उस ध्वन्यात्मक परिवर्तन ने आधुनिक भाषा को जन्म दिया । मध्यकाल का ज्ञान