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सप्तम अध्याय ध्वनि-विचार
अपभ्रंश में प्राकृत की प्रायः सभी ध्वनियाँ पाई जाती हैं। प्राकृत का पालि से बहुत कुछ साम्य रहा। पालि के समय में ऋ, ऋ, लु, लु ऐ एवं औ स्वर समाप्त हो चुके थे। पालि में ऋ का परिवर्तन प्रायः अ, इ, एवं उ आदि ध्वनियों में हो गया था। लौकिक संस्कृत में भी लृ एवं ऋ का प्रयोग प्रायः समाप्त सा हो चला था। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में लू का प्रयोग केवल 'क्लुपु धातु लुटि च क्लृपोः के लिये ही किया था। पालि में संस्कृत ऐ और औ की जगह ए एवं ओ का प्रयोग होने लगा।
स्वर परिवर्तन के साथ-साथ व्यंजनों में भी कुछ परिवर्तन हुआ। पालि के समय में ही श एवं ष का स्थान दन्त्य स्थानीय स ने ले लिया था। विसर्ग तो सदा के लिये समाप्त हो गया। शेष समस्त ध्वनियाँ प्रायः संस्कृत की तरह ही रहीं।
इस तरह अपभ्रंश में प्राकृत की प्रायः सभी ध्वनियाँ मिलती हैं। अपभ्रंश साहित्य की निम्नलिखित ध्वनियाँ हैं
अपभ्रंश की ध्वनियाँ स्वर
हूस्व-अ, इ, उ, ऍ, ओं
दीर्घ–आ, ई, ऊ, ए, ओ ऋ का अपभ्रंश में कहीं अ हो जाता है और कहीं इ भी-हेमचन्द्र 8/4/329 तणु, तिणु एवं तृणु।