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ध्वनि- विचार
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उद्यान, मज्ज < मद्य, सेज्जा - शय्या, कज्ज < कार्य, मज्झ < मध्य, < जुज्झहो < युध्यतः ।
प्राकृत के समान अपभ्रंश में भी अनावश्यक व्यंजन द्वित्व की प्रवृत्ति पायी जाती है - काच > कच्च, यूथ > जुत्थ आदि । दीर्घ स्वर के ह्रस्व हो जाने के कारण व्यंजन पर बल पड़ता है और उसका द्वित्व हो जाता है। क्षति पूरक सानुनासिकता की भी प्रवृत्ति पायी जाती है-वयस्याभ्यः > वयंसिअहु, वक्र > वंक ।
(6) सावर्ण्य भाव अथवा बोली की विशिष्टता (Dialectal peculiarity) में त्त, प्प, क्क का के रूप में उलट पुलट पाया जाता है । चुक्क < चुत्त < च्युत, जुप्पइ < जुत्तइ, लुक्क - लुत्त, < लुप्त, वुक्क < वुत्त < वक्त < बोक्क < बुक्कइ (हे० 8 /4/98), सवक्की < सवत्ती < सपत्नी, कप्पइ < कत्तइ < सं०√कृत (हे ० 8 /4/357)
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(7) विसंस्थुल में स्थ को ढ होता है ( हे० 8 /4/ 436 ) विसंठुल < विसंस्थुल, संज्ञा शब्द के संयुक्त स्ट को ठ होता है-मुट्ठि < मुष्टि, दिट्टी < दृष्टि, सिट्ठी < सृष्टि, समर्द, वितर्द, विच्छर्द, च्छर्दि, कपर्द, मर्दित के द को ड प्राकृत एवं अपभ्रंश दोनों में होता है - सम्मड्डो < संमर्दः, वियड्डी < वितर्दि, विच्छड्डो < विच्छर्द (हे० 8 /4/387) छड्डहि, कवड्ड < कपड, सम्मड्डिओ < संमर्दितः ।
(8) संयुक्त व्यंजन के घोष महाप्राण ध को घोष महाप्राण ढ हो जाता है । हे० 8/4 /343 - दड्ढा < दग्ध, विअडढ < विदग्ध, वुड्ढो < वृद्धा, आदि व्यंजन को छोड़कर संज्ञा शब्द के स्त को थ-हत्थहिं < हस्तैः, अत्थहिं < अस्त्रैः, सत्थहिं < शस्त्रैः न्म, एवं ग्म का म हो जाता है यानी समीकरण के नियम के अनुसार परवर्ती शब्द की भाँति पूर्ववर्ती शब्द भी हो जाता है - जम्म< जन्म, कम्म < कर्म, वम्महो < ब्राह्मणः, जुम्मं < जुग्मं, तिम्मं < तिग्मं, पूर्ववर्ती समीरकण के नियम के आधार जुग्गं तिग्गं रूप भी पाया जाता है। स्म को म्ह होता है - विम्हय < विस्मये ।
(9) संस्कृत के संख्या वाचक शब्दों का प्राकृत के बाद अपभ्रंश में प्रायः व्यंजन द्वित्व की सुरक्षा की गयी है - तिणि < त्रीणि, सत्तावीस