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क्रियापद
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अपभ्रंश के अउँ, अउ का ही विकास न० भा० आ० भाषाओं के वर्तमान उत्तम पुरुष ए० व० के तिङ् के चिह के रूप में हुआ है। प्राचीनका पश्चिमी राजस्थानी में अन्त्य अ-उ प्रायः या तो दुर्बल होकर उँ हो जाता है (तेस्सितोरि $11, (1)) जैसे बोल्-उँ, धर्-उँ में अथवा सिमट कर ऊँ (तेस्सि० 11 (4)) हो जाता है-कर-ऊँ, लह-ऊँ। कहीं-कहीं अ-उँ के इ-उँ हो जाने का भी एक उदाहरण मिलता है-बोल् इ-उँ=मैं बोलता हूँ। .
(iv) म्हि > म्मि (पूर्ववर्ती म० भा० आo में नहीं पाया जाता) यह संभवतः उत्तम पु० ए० व० क्रिया अस्मि से आया है। बुद्धिस्ट संस्कृत में प्रायः अस्मि का प्रयोग क्रिया पूरक के अर्थ में होता है-प्रा०-गच्छम्हि, अप०-अभथियम्मि (विक्रमोर्वशी)
(v) ए-महे अप०-पदिच्छमहे (ब० व०, ए०व० के लिये) (वसु०)। 2. उत्तम पुरुष ब० व०
सभी प्राकृत बोलियों के उ० पु० ब० व० वर्तमान कालिक रूप के अन्त में मो आता है, पद्य में-मु तथा म भी जोड़ा जाता है जो वर्तमान काल का सहायक चिह है (पिशेल 8455) हसामो, हसामु और हसाम रूप है। अपभ्रंश में इसका हुँ रूप मिलता हैवट्टहुँ (=*वर्तामः = वर्तामहे) हुँ (अहुँ) की व्युत्पत्ति के विषय में काफी मतभेद है।42 हार्नले ने इसे अहुँ, अउँ < प्रा० अमु से व्युत्पन्न माना है। यह संमक्तः उत्तम पु० ए० व० अउ से भिन्न रखने के लिये किया गया है। यह अन्य पु० ब० व० अहि से मिलाने के लिये किया गया है।
काडवेल ने अम्हों, अम्ह (हसम्हो, हसम्ह < Vहस) को उत्तम पु० ब० व० का वैकल्पिक रूप माना है। इस पर डॉ० तगारे का कहना है कि अगर यह सत्य है तो अहुँ में ह-इसी का प्रभाव जान पड़ता है।