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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
जइ भग्गा घरू एन्तु (हेम० 8/4/351)-यदि भागकर घर आवे
जइ ससि छोल्लिज्जन्तु तो जइ गोरिहें मुह-कमलि सरिसिम का वि लहन्तु (हेम० 8/4/395,1)-अगर चन्द्रमा को छीलकर बनाया जाय तो किसी तरह गोरी के मुख-कमल की तुलना कर सके।
क्रियाति-पत्यर्थ में वर्तमान कृदन्त का प्रयोग प्राकृत काल से ही चलता आ रहा है। (हेम० 8/3/180), हेत्वर्थ कृदन्त का क्रिया साधित प्रत्यय 'ण' है (हेम० 8/4/353)-एच्छण, (हेम० 8/ 4/441,1)-करण। विध्यर्थ कृदन्त का प्रत्यय वं हेत्वर्थ कृदन्त की तरह होता है (हेम० 8/4/441,1)-देवं । कृदन्त का प्रयोग विभक्ति के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। जैसे तृतीया का निरपेक्ष प्रयोग
पुत्तें जाएं कवणु गुणु (हेम० 8/4/395,6)-पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ ?
पुत्ते मुएण कवणु अवगुणु (हेम० 8/4/395,6)-पुत्र के मरने से क्या हानी।
पिएं दिहें सुहच्छडी होइ (हेम० 8/4/423,2)-प्रिय के देखने से सुख होता है। 1. चतुर्थी/षष्ठी का निरपेक्ष रचनात्मक प्रयोग
पिअहो परोक्खहो निद्दडी केवँ (हेम०8/4/417,1)-प्रिय के परोक्ष होने पर निद्रा कैसी। 2. वर्तमान कृदन्त का निरपेक्ष रचनात्मक प्रयोग
पिअ जोअंतिहे मुह-कमलु (हेम० 8/4/332,2)-प्रिय की प्रतीक्षा करता हुआ मुख-कमल ।
एहउँ चिन्तन्ताहँ (हेम० 8/4/362)-इस प्रकार चिन्ता करता हुआ।
जाहँ अवरोप्परु जोअताहँ (हेम० 8/4/409)-जहाँ एक दूसरे को देखते हुए
देन्तहो हउं पर उव्वरिअ जुज्झन्तहो करवालु (हेम० 8/4/379,2) देता हुआ मैं बचा ली गयी और जूझती हुई तलवार ।