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उपसंहार
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एवं मध्यम वर्गों की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम रही है। अपभ्रंश भाषा में बौद्ध सम्प्रदाय के सिद्धों ने तथा जैनियों ने तो रचनाएँ की ही हैं, शैवों ने भी इसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। आन और शान पर मरने वाले राजपूतों को तो यह ललकारती ही थी, प्रेमाभिव्यक्ति भी इस भाषा में बहुत हुई।
सन् 1000 ई० के बाद यह भाषा परिनिष्ठित रूप में परिणत होने लगती है। इस समय तक यह भाषा दो रूपों में विभक्त हो गयी-1-परिष्कृत अपभ्रंश तथा 2-ग्राम्य अपभ्रंश के रूप में। हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन में दोनों प्रकार की अपभ्रंशों का उल्लेख किया है। हेमचन्द्र ने जिस अपभ्रंश का व्याकरण लिखा है वह परिष्कृत अपभ्रंश है। यह काल सन् 1100 से 1200 ई० तक का है। हेमचन्द्र की अपभ्रंश, शौरसेनी अप्रभंश है। आधुनिक हिन्दी की तरह यह अपने समय में सर्वत्र मान्य थी। अपभ्रंश ही एक ऐसी विभाजक रेखा है जो भाषा की दृष्टि से पुरानी एवं आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की कड़ी जोड़ती है। इसी से न० भा० आ० के शब्दों का विकास क्रम पता चलता है। हिन्दी भाषा के व्याकरण का पूरा ढाँचा अपभ्रंश के अनुकूल है। अपभ्रंश के शब्दों की ध्वनि प्रक्रिया बहुत कुछ प्राकृत से मिलती है किन्तु उसका झुकाव आधुनिक भारतीय भाषाओं की ओर अधिक है। अपभ्रंश का परवर्ती रूप अवहट्ट और पुरानी हिन्दी के समान है। इस कारण अपभ्रंश और हिन्दी ध्वनियों में बहुत कुछ साम्य है। हिन्दी का हस्व स्वर ऍ और ओ अपभ्रंश की देन है। अपभ्रंश की य श्रुति हिन्दी में प्रचलित है। अपभ्रंश के स्वर विकार एवं व्यंजन विकार के शब्द हिन्दी के तद्भव शब्दों में परिलक्षित होते हैं; जैसे-संस्कृत-कर्णअप० कण्ण-हि० कण्ण-कान, सं०-हस्त-अप०-हत्थ-हि०-हत्थ-हाथ, सं०-गृह-अप०-घर-हि० घर आदि।