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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
अप्रभंश की मौलिकता परसर्ग के प्रयोगों में दीख पड़ती
अभाव से हुआ । हिन्दी कारक चिह्नों का स्थान
है। इन परसर्गो का उदय विभक्तियों के में भी विभक्तियों के अभाव से परसर्ग ने लिया। परसर्ग प्रकरण में इस पर सम्यक्तया विचार किया जा चुका है, जैसे- अधिकरण परसर्ग - मज्झे, मज्झि, महँ, माहिं, मि, मेंजामहि ँ विसमी - कज्जगइ जीवहँ मज्झे एइ,
अप०
( हेम० 8 /4/406.3).
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अवधी,
युवराजहिन माझ पवित्र (कीर्ति० पृ० 12), चितमज्झे (प्रा० पैं० 2, 164),
अणहल पुरमझारि (पु० राज० – कान्ह० 67),
व्रज
- कूदि पड़ा तब सिंधु मझारी (मानस),
सरग आइ धरती महँ छावा ( पद्मावत),
रामप्रताप प्रगट एहि माँही (मानस), हमको सपनेहू में सोच (सूर) आदि ।
अपभ्रंश की संज्ञा और सर्वनाम का विकास अपनी स्वतन्त्र सत्ता बताता है। यह भाषा बहुत कुछ अयोगात्मक हो चली थी । प्राकृत के विविध रूपों की प्रणाली से यह अपना पिंड छुड़ा कर सरलता की ओर झुकी। प्रथमा और द्वितीया, तृतीया और सप्तमी, पंचमी और षष्ठी के रूपों में समानता दिखती है। अपभ्रंश के बहुत से रचनात्मक प्रत्यय हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रचलित हैं, जैसे- स्वार्थे डा या ड़ा और आर या रा प्रत्यय आदि - दोषड़ा, वछड़ा, संदेसड़ा, हियरा, जियरा आदि । अपभ्रंश की क्रिया पद्धति संस्कृत से भिन्न हो चली है । कृदन्तज क्रिया का बाहुल्य हो गया। इससे भूतकालिक क्रियायें कर्मवाच्य एवं भाववाच्य की ओर झुकी हुई हैं। इसका प्रभाव हिन्दी के वाच्यों पर पड़ा। सामान्यतया वर्तमान और भविष्य की वाक्य रचना कर्तरि प्रधान होती है ।