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क्रियापद
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प्राकृत पैंगलम् में भी ए रूप का उदाहरण मिलता है
आवे (2,38), चलावे (2,38). णच्चे (2, 81) आदि ।
शून्य रूप की उत्पत्ति के विषय में दो मत हैं। प्रथम मत के अनुसार यह शुद्ध धातु रूप है। दूसरे मत के अनुसार इसका विकास °ति > °अई > °अ के क्रम से हुआ है। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी दूसरे मत के परिपोषक हैं। उत्तिव्यक्तिप्रकरण के वर्तमान प्र० पु० ए० व० रूप 'कर' की उत्पत्ति वे यों मानते हैं:
प्रा० भा० आ० करोति, * करति > म० भा० आ० करइ > पुरानी कोसली करइ (जो कम पाया जाता है), कर। प्राकृत पैंगलम् में अ या शून्य वाले रूप बहुत मिलते हैं :
पसर (1,76), हो (1,81,94), भण (1,108) आदि । 6. अन्य पुरुष ब० व०
प्राकृत की सभी बोलियों में अन्य पु० ब० व० के अन्त में न्ति लगाया जाता है। प्राकृत होन्ति, करेन्ति, चू० पै० में उच्छल्लन्ति
और निपतन्ति रूप आये हैं (हे० 4/326); अपभ्रंश में विहसंति, करन्ति < कुर्वन्ति (हे0 4/365;445,4)। किन्तु अपभ्रंश में साधारण समाप्ति सूचक चिह हि है। पिशेल के अनुसार इसकी व्युत्पत्ति का पता नहीं चलता। अर्द्धमागधी में भी हि रूप पाया जाता है-अच्छहिं < तिष्ठन्ति। डा० सुकुमार सेन का कहना है कि इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार (उत्तम० पु० उम्, हु; मध्यम पु० हि, हिं) इस प्रकार नहीं मानी जा सकती, जैसे कि हुँ, हिं से पूर्ववर्ती नहीं दीखता। इसलिये अच्छा होगा कि इसे तृतीय ब० व० सर्वनाम (* एभिं, * इभिं) के हिं व्युत्पन्न मानें। यह क्रिया के साथ ठीक उसी प्रकार जुट गया जैसा कि उ० पु० में अउँ और म० पु० तु मिल गया। हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों में इसके बहुत से उदाहरण मिलते हैं-अच्छहिँ, करहिँ, मउलिअहिँ < मुकुलयन्ति, अणुहरहिँ < अनुहरन्ति, लहहिँ < लभन्ते, णवहिँ < नमन्ति, गज्जहिँ < गर्जन्ते,