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मध्यम० पु० ब० व०
अन्य० पु० ए० व०
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अन्य पु० ब० व०,
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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
आणहि, करहि, छड्डहि, धरहि, सुमरहि, खाहि
करहु, नमहु, पिअहु, मग्गहु,
देहु ।
पल्लवह, पुच्छह, ध्रुवह अच्छउ, विनडउ (कर्मणि), समप्पउ, जउ, होउ
न्तु
( = अनुस्वार + 'तु') पीडंतु
प्रो० भयाण" का कहना है कि
अ ( ए० व०), हि (ए० व०), ह ( ब० व०) प्रत्यय का रूप प्राकृत से लिये गये हैं। ए प्रत्यय इ की पूर्व भूमिका है।
चरि, जेइ ऊपर का चर, जे है। करहु ऊपर का करो, करउ (अन्य पु० ए० व०) का करो अर्वाचीन रूप भी पाया जाता है ।
आज्ञा वाचक अपभ्रंश उत्तम पुरुष के रूप की रचना वर्तमान काल के उत्तम पुरुष के रूप की तरह ही होता है। दोनों रूप विधानों में बहुत कुछ साम्य है । अर्थ भेद से ही कालों के रूप का ज्ञान होता है। प्राकृत व्याकरण की अपेक्षा अपभ्रंश साहित्य में रूपों की विविधता पायी जाती है। डॉ० तगारे ने इन रूपों की संख्या तक दी है। उन्होंने (1000 ई०) मध्यम पु० ए० व० के 11 रूप दक्षिण अपभ्रंश में दिया है। (1200 ई०) 9 रूप पश्चिमी अपभ्रंश में और पूर्वी अपभ्रंश में 7 प्रकार के रूप जिनमें कि विभिन्न प्रकार के रूप हैं । दूसरी बात यह है कि कुछ खास रूप जिसका वर्णन प्राकृत वैयाकरणों ने किया है - वे हैं - उत्तम पु० ब० व० - हुँ और अन्य पु० ब० व० – अहिं ( ( पिशेल 467 ) हैं जिनकी व्युत्पत्ति का पता नहीं चलता। तीसरी बात यह है कि आज्ञा वाचक में छ प्रत्यय ऐसे हैं जो कि अपभ्रंश के सभी क्षेत्रों के लिये समान हैं। वे निम्नलिखित हैं :