________________
धातुसाधित संज्ञा
"विणु :- पेक्खेविणु (हेम० 4/ 444, 4); छर्द का रूप छड्डेविणु (हेम० 4 / 422,3); लेविणु (हेम० 4 / 4412 ) ला का रूप है। रुन्धेविणु (विक्रम० 67,20), करेविणु, मारेविणु, झाएविणु । सामान्य क्रिया भज्जिउ कृदन्त के स्थान में बैठी है।
इ - करि, जेइ, मारि, छड्डि, कप्पि
'इय-थिय, आरक्खिय ।
415
'ई- वइसी ।
'ऊण - पुज्जिऊण, गिण्हिऊण, नमिऊण
°उं–आ प्रत्यय हेत्वर्थ कृदन्त के लिये होता है। यह संबंध भूत कृदन्त के अर्थ बताने में आता है- सोउं, तोडिउं ।
इस प्रकार 'इअ ('इय), 'इउ, इ - इनका संबंध 'य' ( ल्यप् ) से है। संदेशरासक ( 868 - भूमिका) में इंवि, 'अवि', 'एवि, एविणु, °इ, °इय, °इउ, 'अप्पि रूप पूर्व कालिक क्रियाओं में पाये जाते हैं। उक्ति व्यक्तिप्रकरण ( 880 भूमिका) में डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने 'इ वाले रूपों का निर्देश किया है :- धरि, देइ, छारि, न्हाइ, पूजि, पढ़ि (11 / 13 ) । कुछ स्थानों में यह 'इ, 'अ में परिवर्तित, हो जाता है :- जिण (34 / 9 ) < जित्वा' ।
"इ का विकास क्रम इस प्रकार माना जा सकता है :-- प्रा० भा० आ० °यम० भा० आ० °ई ई इ > °अ:-*कार्य (=कृत्वा) म० भा० आ० करिअ > करी > करि > हि० कर, गुज० करि ।
हेत्वर्थ कृदन्त
अपभ्रंश के हेत्वर्थ कृदन्त में हेमचन्द्र के अनुसार (4/ 441 ) . 'अण, – अहँ, - अणहि ँ और - एवँ प्रत्यय होता है। हेमचन्द्र तथा क्रमदीश्वर ( 5/ 55 ) के अनुसार - एप्पि - एप्पिणु, अणं, - अउं और एव्वउं प्रत्यय भी होता है जो कि पूर्वकालिक क्रिया के भी प्रत्यय हैं ।