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वाक्य-रचना
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रूप, क्रिया पदों में संयुक्त काल और कृदन्तज रूपों के बाहुल्य ने इस भाषा को एकदम नवीन रूपाकार में प्रस्तुत किया। इससे यह भाषा संस्कृत एवं बहुत कुछ माने में प्राकृत से भिन्न होकर हिन्दी के बहुत समीप आ गयी है।
अप्रभंश काल में दो प्रकार की प्रवृत्ति देखी जाती है, एक ओर तो निर्विभक्तिक प्रयोगों की ओर झुकाव है, तो दूसरी ओर कारक विभक्तियों के प्रयोगों की स्वच्छन्दता भी देखी जाती है। अपभ्रंश के परवर्ती काल में तो निर्विभक्तिक प्रयोगों का बाहुल्य पाया जाता है। प्रत्येक जीवित भाषा में कारक-विभक्तियों का व्यत्यय भी पाया जाता है। संस्कृत में भी कारक विभक्तियों का व्यत्यय होता था और आधुनिक जीवित हिन्दी आदि भाषाओं में कारक-विभक्ति का व्यत्यय पाया जाता है। हेमचन्द्र ने प्राकृत-अपभ्रंश वाक्य-रचना में इस व्यत्यय को लक्षित किया है। सम्बन्ध कारक की षष्ठी विभक्ति का प्रयोग कर्म, करण, सम्प्रदान और अधिकरण के लिये भी होता है। इसके अलावा अधिकरण कारक की सप्तमी विभक्ति का प्रयोग कर्म और करण के लिये भी होता है। अपादान कारक के अर्थ में करण कारक (तृतीया) एवं अधिकरण (सप्तमी) कारक विभक्ति का प्रयोग होता था और इसी तरह सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग भी प्रचलित था। भाषा सम्बन्धी ये प्रवृत्तियाँ प्राकृत में प्रचलित थीं। अपभ्रंश के लिये यद्यपि हेमचन्द्र ने कोई विधान नहीं किया है फिर भी अपभ्रंश दोहों में विभक्ति-व्यत्यय के पूर्वोक्त उदाहरण पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। इसके निम्नलिखित उदाहरण देखे जा सकते हैं : (क) संबन्ध कारक के विशिष्ट प्रयोग (i) कर्म कारक के अर्थ में
तो वि महद्दुम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति (हेम० 8/4/ 445)=शकुनियों को।
वेस विसिगृह वारियइ (कुमार० प्रतिबोध)=वेष-विशिष्ट लोगों तुअहिययट्ठियह छड्डिवि (सं० रास० 75)=तुम हृदय स्थित