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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
पर प्राप्त दोहों में धातु रूपों की रचना पद्धति में क्रमबद्धता विश्रृंखलित हो जायेगी। निष्कर्ष यह कि हेमचन्द्र के प्राकृत धात्वादेश अपभ्रंश के भी धात्वादेश हैं। अपभ्रंश धात्वादेश में वे ही धातु कथित हैं जिनका प्रयोग अपभंश में बदल गया था।
(क) संस्कृत क्रिये को कीसु होता है-(हेम० 4/389) कन्तहो बलिकीसु < कान्तस्य बलिं क्रिये। कृ धातु उ० पु० ए० व० लट् लकार का रूप है। साधारणतः प्राकृत और अप० में किज्जउँ रूप होता है :- बलि किज्जउँ सुअणस्सु।
(ख) प्र+भू धातु का अर्थ यदि पर्याप्त हो तो उसे हुच्च होता है। हेम० 4/390 अहरि पहुच्चइ नाह < अधरे प्रभवति नाथः ।
सामान्यतः प्रा० एवं अप० में भू धातु को 'हो' या 'हव' आदेश होकर होइ, होदि आदि रूप होते हैं।
(ग) संस्कृत ब्रू धातु की जगह अप० में ब्रुव विकल्प करके होता है (हेम० 4/391)-ब्रुवह सुहासिउ किंपि < ब्रूत सुभाषितं किंचित् । सामान्यतः अपभ्रंश में ब्रू धातु का ही प्रयोग होता है-जइ-महु अग्गइ ब्रोप्पि।
(घ) अपभ्रंश के संस्कृत व्रज (=गतौ-जाना) धातु के स्थान पर वुञ का प्रयोग होता है-वुञइ, वुप्पि, वुप्पिणु इत्यादि।
__(ङ) संस्कृत दृश् धातु को प्रस्स आदेश होता है (हेम० 4/393) प्रस्सइ, प्रस्सदि, आदि। प्रेक्ष्यति का पेक्खइ आदि रूप भी मिलता है।
(च) सं० ग्रह धातु को गृह होता है (हेम० 4/394)-गृण्हेप्पिणु, गृण्हइ आदि।
(छ) तक्ष (छीलना) धातु के स्थान पर छोल्ल आदेश होता . है। हेम० 4/395 जइ ससि छोल्लिज्जन्तु।'