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क्रियापद
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स्था :- महा० ठविज्जन्ति, अ० मा० उट्ठवेह, अप० ठवेहु ( प्राकृत पैंगलम् 1, 87; 125 और 145 )
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अ, इ और ईकारान्त में समाप्त होने वाली धातुओं के अतिरिक्त अन्य धातुओं में भी जिनका अन्त स्वर, द्विस्वर और व्यंजन से समाप्त होता है, प्रेरणार्थक रूप बनाने के लिये प्राकृत बोलियों में- बे-3 - अक्षर (< संस्कृत पय लगाया जाता है) - ए < अय से बनने वाले प्रेरणार्थकों से ये अल्पतर हैं - हसावेइ, हसाविय, महा० में हसाविअ रूप भी पाया जाता है | घडावेइ, घडाविय, करावेइ, कराविअ और कारावेइ रूप भी पाये जाते हैं। काराविय भी हो सकता है। कुछ प्राकृत बोलियों में ए की जगह वे भी पाये जाते हैं। विशेषतः अपभ्रंश में जिसमें आ - वा आते हैं। इस प्रकार के रूप नाम धातुओं की भाँति होते हैं अथवा इन धातुओं की रूपावली उन धातुओं की भाँति बनती है जो मूल में ही संक्षिप्त कर दिये गये हों और जिनमें द्विस्वर से पहले नियमित रूप से स्वर ह्रस्व कर दिये गये हों : उदाहरण:- हँसावइ (हेम० 3 / 149 ), घडावइ ( हेम० 4 / 340), उग्घाडइ (हेम० 4 / 33 ); शौरसेनी में घडावेहि पाया जाता है । उद्दालइ < उद्दालयति (हेम० 4 / 125 ); पाडइ < पातयति ( हेम० 3 / 153) ; इस रूप के साथ-साथ महा० में पाडेइ भी देखा जाता है । भ्रम का भमावइ (हेम० 4 / 151 ) ; उत्तारहि (विक्रमोर्वशीय, 69, 2) शौर० में ओदारेदि । मारइ (हेम० 4 / 33,3) इसके साथ-साथ महा० में मारेसि और मारेहिसि तथा मारेइ रूप भी मिलते हैं । अपभ्रंश में भी मारेइ (हेम० 4 / 337) ; हारावइ (हेम० 4 / 31 ) अपं० वाहइ (पिंगल 1/5अ); निम्मवइ < निर्मापयति ( हे० 4 / 19 ); पट्ठवइ और पट्टावइ (हेम० 4 / 37 ) इसके अतिरिक्त परिठवहु और संठवहु भी मिलते हैं। ठावेइ और ठवेइ रूप भी चलता है। दा धातु का दावइ और दावेइ रूप बनता है। वज्जेइ, धरेइ (हेम० 4/336); मारेइ, करेइ (हेम० 4/337); घडावइ (हेम० 4 / 340) सिक्खेइ < शिक्षयति (हेम० 4/334); तिक्खेइ < तीक्ष्णयति (हेम० 4 / 370 ); तक्कइ < तर्कयति, थक्केइ (हेम० 4/396), चेअइ < चेतयति । कहीं-कहीं अपभ्रंश दोहों में तुक के आधार पर भी ए का प्रयोग