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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
प्रेरणार्थक क्रिया
प्रा० भा० आ० प्रेरणार्थक (णिजन्त) रूपों का चिह्न आय, और अय (भावयति, गमयति) तथा आपय और अपय-(स्थापयति, स्नपयति)। म० भा० आ० में अय, ए, आव तथा आवे के रूप में विकसित हुआ। तेस्सि तोरि का कहना है (6 141) कि प्रेरणार्थक धातु रूपों को 'सकर्मक' कहना अधिक अच्छा है। प्राकृत और अपभ्रंश में आपय को सामान्य प्रत्यय के रूप में स्वीकार किया गया है और इसका प्रयोग किसी धातु के साथ प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के लिये किया जाता है। इसी आपय का विकसित रूप है आव। इस प्रत्यय के पूर्व प्राचीन पश्चिमी राजस्थानी का मूल दीर्घस्वर सामान्यतः, परन्तु सदैव नहीं, ह्रस्व हो जाता है; जैसे
बोलइ से बोलावइ (प० 342) बोलवाना।
कभी कभी आव को अव भी हो जाता है और मूल स्वर को दीर्घ रहने दिया जाता है, जैसे
पश्चिमी राज० 348-वीनवइ < अप० विण्णावइ < सं० विज्ञापयति । ऐसे रूप प्राकृत और अपभ्रंश में व्यापक रूप से प्रचलित हैं-पट्ठवइ-हेम० 4/37) < पठवइ, प्रा० विण्णवइ (हेम० 4/38) < विण्णावइ < विज्ञापयति; मेलवइ (हेम० 4/28), सोसवइ (हेम० 3/150) अपभ्रंश में पट्ठाविअ (कर्मवाच्य; हेम० 4/422), प्रयोग भी मिलता
है।
पिशेल (8551) का कहना है कि प्रेरणार्थक संस्कृत की भाँति ही प्रेरणार्थक वर्धित धातु (=वृद्धि वाला रूप) में-ए=संस्कृत अय के आगमन से बनता है :- कारेइ < कारयति, पाठेइ < पाठयति, उवसामेइ < उपसामयति और हासेइ < हासयति है। आ में समाप्त होने वाले धातुओं में वे संस्कृत (आ) पय का आगमन होता है:- ठावेइ < स्थापयति, आघावेइ < आख्यापयति महा०-णिव्वावेन्ति < निर्वापयन्ति; शौर० भविष्यत्काल में णिव्वावइस्सं मिलता है। आकारान्त धातुयें प्राकृत में प्ररेणार्थक (आ) व लगाने पर हस्व भी हो जाती हैं :