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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
(1) प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के नियमों के अनुसार-य वाला संस्कृत रूप काम में आता है; इस स्थिति में महा०, जै० महा०, जै० शौर०, अ० मा० और अप० में स्वरों के बाद-य का-ज्ज हो जाता है। व्यंजनों के रहने पर यह ईय हो जाता है। अपभ्रंश में इज्ज भी होता है।
(2) धातु में ही इसका चिह लगा दिया जाता है अथवा बहुधा।
(3) वर्तमान काल के वर्ग में चिह छोड़ दिया जाता है। इस नियम से दा के निम्नलिखित रूप होंगे :
महा०, जै० महा०, अ० मा० और अप० में दिज्जइ है, जै० शौ० दिज्जदि, शौर० और माग० में दीअदि रूप पाये जाते हैं। वररुचि (7. 8); हेमचन्द्र (3,160); क्रमदीश्वर (4,12) और मार्कण्डेय के अनुसार विना किसी प्रकार के भेदभाव के प्राकृत की सभी बोलियों में कर्मवाच्य में ईआ और-इज्ज लगाकर भविष्यत्काल बनाया जाता है। वर्तमान इच्छा वाचक तथा आज्ञा वाचक रूप कर्मवाच्य में आ सकते हैं। इसके अतिरिक्त कर्मवाच्य वर्ग से पूर्ण भूतकाल, भविष्यत्काल, सामान्य क्रिया, वर्तमान कालिक और भूत कालिक अंश क्रियायें बनायी जाती हैं। पिशेल का कहना है कि समाप्ति सूचक चिह नियमित रूप से परस्मैपद के हैं। सन्देश रासक में °इय, इज्ज तथा ईय रूपों का अनुपात 33,13 और 3 है। इन सभी के अतिरिक्त अपभ्रंश में कुछ ऐसे अनियमित कर्मवाच्य हैं जो कि संस्कृत रूपों की ध्वन्यात्मक विशेषताओं को बताते हैं: सिज्जइ, पिज्जइ, गिज्जइ, णज्जइ, झिज्जइ, दीसइ, कीरइ, पेसइ, सुम्मइ, पसुप्पइ, घुम्मंति, डझंति; प्रेरणार्थक रूप :- चडाइयइ, सुहाइयइ। तेस्सितोरि ने अप० इज्ज से पुरानी राजस्थानी में दो प्रकार के रूपों का विकास दिखाया है-(1) ईजइ पुरानी राजस्थानी कीजइ < अप० कीज्जइ < सं० क्रियते। पु० राज० दिजइ < अप० दिज्जइ < सं0 दीयते। (2) ईयइ (ईअइ) वाले :-पु० राज० करीयइ < करीजइ < अप० करिज्जइ < सं० क्रियते। पु० राज०