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क्रियापद
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महा-कहामि, कहसि, कहइ, कहामो, कहइ और कहन्ति रूप मिलते हैं। अप० कहि <* कथेः < कथये है। (हेम० 4/422,14); महा०, अप०-गणइ, गणन्ति और गणन्तीऍ (हेम० 4/353 भी है); महा०, अप०-चिन्तइ और चिन्तन्ताहँ < चिन्तयन्ताम् है (हेम०); उम्मूलइ < उन्मूलयन्ति, पप्फोडइ और पप्फोडत्ती < प्रस्फोटयति; मउलन्ति < मुकुलयन्ति; पाहसि < प्रार्थयसि है।
___ संस्कृत की भाँति प्राकृत में भी नाम धातु का निर्माण-अ < संस्कृत-य-जोड़ने से होता है। महा०-सुहाअइ, शौर०-सुहाअदि (शाकन्तुल - 49,8) = सुखायति है। पिशेल ($ 558) ने उन बहुसंख्यक नाम धातुओं का उल्लेख विशेष रूप से किया है जो किसी ध्वनि का अनुकरण करते हैं अथवा शरीर, मन और आत्मा की किसी सशक्त हलचल आदि को व्यक्त करते हैं। नवीन भारतीय आर्य भाषाओं में भी इनका प्राधान्य है; संस्कृत में इनमें से अनेक पाये जाते हैं, किन्तु इसमें कुछ मूलरूप में है जिनमें इनकी व्युत्पत्ति पाई जाती है। इस जाति का परिचायक एक उदाहरण दमदमाइ अथवा दमदमाअइ (हेम० 3/138) है जिसका अर्थ है 'ठमाठम' करना। यह ढोल या दमामे की अनुकरण का है। प्रेरणार्थक की भाँति भी इनका रूप मिलता है। शौर०-कुरकुरा असि, कुरकुराअदि (मृच्छ० 71); कुरकुराअन्त (कर्पूर० 14,3;70.1); कुरुकुरिअ (=देखने की प्रबल इच्छा; सुध, धुन; देशी० 2,42); जै० महा० में घुरुघुरन्ति (गर्राना) आया है। टिरिटिल्लइ जिसका अर्थ वेश बदल कर भ्रमण करना (हेम० 4/161) है। महा० में धुक्का धुक्कइ (हाल 584) मराठी धुक धुकणे।
प्रेरणार्थक के ढंग से भी नाम धातु बनते हैं:-अ० मा०-उच्चारेइ < उच्चारयति; उवक्खडेइ <* उपस्कृतयति; बार-बार-उवक्खडावेइ। महा० दुहावइ <* द्विधापयति, मइलेइ, मइले न्ति, मइलन्त और मइलिज्जइ पाये जाते हैं जो मइल (=काला) के रूप हैं।
न० भा० आ० में नाम धातुओं का प्रयोग बहुत बढ़ चला है, किन्तु प्राकृत पैंगलम् में नाम धातु के प्रयोग कुछ कम पाये जाते हैं :- वरवाणिओ (2,174,2,196 Vवखाण <* Vव्याख्यानयति *व्याख्यानयते)। जणमर (1,149 vजणम <* जन्म, जन्मयते)।