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क्रियापद
कर्मवाच्य रूप
प्रा० भा० आ० में सकर्मक धातुओं से कर्मवाच्य और अकर्मक धातुओं से भाववाच्य होता था । कर्तृवाच्य दोनों प्रकार की धातुओं से होता था । म० भा० आ० में भी धातुओं की सकर्मकता और अकर्मकता के कारण भाव कर्मणि प्रयोग हुआ । आचार्य हेमचन्द्र ने भी स्वतः भाव कर्म का उल्लेख किया है 156 अपभ्रंश में प्रायः सर्वत्र भूतकाल के लिये कृदन्त=क्त प्रत्यय का प्रयोग होता था । संस्कृत में क्त प्रत्यय का प्रयोग तो प्रायः भाव कर्मणि ही होता था । कर्तृवाच्य के लिये कृदन्त 'क्तवतु' का प्रयोग होता था जिसका कि अभाव प्राकृत काल से ही हो गया था । सामान्यतः भूतकाल में कर्तरि प्रयोग नहीं होता । कर्मवाच्य का प्रयोग सकर्मक धातुओं से होता था । क्रिया व्यापार का परिणाम जब कर्म पर पड़े तब धातुयें सकर्मक होती हैं और उनसे कर्मवाच्य होता है :
(हेम० 4 / 330)
1. ढोला मई तुहुँ वारियाँ । 2. विट्टीए मइँ भणिय तुहुँ ।
3. जे महु दिण्णा दियहडा दइयें पवसन्तेण । (हेम० 4 / 333 ) क्रिया व्यापार का फल जब कर्म पर न पड़कर कर्त्ता में ही सन्निहित रहे तो भाववाच्य होता है ।
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हे० 46396 'असइहिँ हसिउँ निःसंकु असतीभिः हसितं निःशंकम् । हस धातु का अर्थ हंसना है । हंसना क्रिया व्यापार का फल कर्म पर न पड़कर आनन्द आदि परिणाम कर्ता कुलटाओं पर ही पड़ा। अतः हस धातु को अकर्मक होने के कारण इसे भाववाच्य मानना चाहिये । प्राकृत वैयाकरण लक्ष्मीधर" ने प्राकृत की भाँति अपभ्रंश में भी भाव कर्म मानने का विधान किया है पिशेल ($ 535) का कहना है कि कर्मवाच्य प्राकृत में तीन प्रकार से बनाया जाता है ।
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