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क्रियापद
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अन्य पु० ब० व०
शौर० - करइस्सन्ति, अप० - करिहिन्ति, होसहिँ, जाणिस्सहिँ, होहिहिं तथा होसन्ति ।
हिन्दी में भविष्यत् के रूप वर्तमान के साथ ही 'गा, गे, गी ́ (गतः > गअ > गा, कर्मवाच्य भूत कालिक कृदन्त ) को जोड़ कर बनाये जाते हैं। अतः म० भा० आ० के रूप यहाँ विकसित नहीं हुए हैं। राजस्थानी में स वाले रूपों का विकास पाया जाता है ।
पुण्यवंत प्रीति पामस्यइ, वली वंसि गढ़ ताहरइ हुस्याइ । ( कान्हड़ दे० 4,197)।
अवधी के भविष्यत् में एक ओर 'ह' वाले रूप, दूसरी ओर °ब (कर्मवाच्य भविष्यत्कालीन कृदंत 'तव्य' से विकसित) रूप मिलते हैं। 'ब वाले कृदन्त रूपों का भविष्यकालीन प्रयोग पूर्वी 4 हिन्दी की निजी विशेषता है ।
भूतकाल
अपभ्रंश में भूतकाल के लिये तिङन्त का प्रयोग समाप्त हो गया । प्रा० भा० आ० में इसकी अभिव्यक्ति वाले तीन लकार (लङ्, लुङ् और लिट् ) थे । प्राकृत में ही प्रायः ये सभी लकार समाप्त हो गये थे। पिशेल ” ने कुछ अवशिष्ट भूतकालिक तिङन्त क्रियाओं का निर्देश किया है । किन्तु देखा जाता है कि प्रायः प्राकृत काल से ही निष्ठा कृदन्त के साथ सहायक क्रिया लगाकर भूत काल को स्पष्ट किया जाता था। अपभ्रंश में भी भूतकाल व्यक्त करने के लिये निष्ठा का प्रयोग किया जाने लगा । कभी-कभी सहायक क्रिया अस् और √भू धातु के माध्यम से भी भूतकाल का अर्थ व्यक्त किया जाता था। अपभ्रंश में जहाँ कहीं 'अहेसि ́ < अभूत् (सनत्कुमार चरित 447,8), णिसुणिउं < न्यश्रुण्वम् (महापुराण 2,4,12), सहु < असहे, जैसे प्रयोग हैं, ये सब प्राकृत के ही प्रभाव हैं।