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क्रियापद
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का प्रत्यय सि (करोषि, चलसि, गच्छसि) था। म० भा० आo में अपरिवर्तित रहा। अपभ्रंश में सि के साथ हि वाले रूप भी मिलते हैं। डॉ० तगारे ने-असि (-एसि, इसि) और अहि (एहि-हि) में से अहि (हि) को अपभ्रंश का वास्तविक विकास माना है। पूर्वी अपभ्रंश में (अ) सि वाले रूप ही अधिक मिलते हैं। दक्षिणी तथा पश्चिमी अपभ्रंश में हि वाले रूप अधिक मिलते हैं। डॉ० तगारे ने सि तथा हि रूपों में 2:25 का अनुपात माना है। 1100 से 1300 ई० में ब्राह्मणिज्म और संस्कृत के प्रभाव के कारण महाराष्ट्र में सि चिह वाले रूप प्रमुख हो उठे। पुरानी मराठी में असि और इसि वाले रूप पाये जाते हैं। हि वाले रूपों का विकास प्रो० ज्यू ब्लाख+5 और एल० एच० ग्रेने+6 आज्ञा म० पु० ए० व० के * धि से जोड़ा है। पूर्ववर्ती पश्चिमी अपभ्रंश में हि का बाहुल्य था। इसका प्रवाह अपभ्रंश काल तक था। किन्तु कथ्य भाषा में ये लुप्त प्राय हो चले। उक्ति व्यक्ति प्रकरण में सि (करसि) ($71) वाले रूप मिलते हैं। प्राकृत पैंगलम् में मे० पु० ए० व० के वर्तमान कालिक रूप सि और हि दोनों रूप मिलता है :
घल्लसि (1, 7), कीलसि (1, 7) जाणहि (1, 132 < जानासि)
खाहि (2, 120 < खादसि) न० भा० आ० भाषाओं में सि रूप नहीं पाया जाता है। इसकी जगह अइ वाले रूप पाये जाते हैं-जयपुरी-चलइ, गुज०चाले-(/चल), अवधी, व्रज-चलइ, हि०-चले। 4. मध्यम पुरुष ब० व०
म० पु० ब० व० में अहँ, अह और अहु प्रत्यय अपभ्रंश में पाये जाते हैं। प्राकृत ह तिङ्ग चिह का विकास प्रा० भा० आ० थ (गच्छथ) से हुआ है। ज्यू ब्लॉख47 ने अह का संबंध वर्तमान कालिक म० पु० ब० व०*-थस् (उत्तम पु० ब० व० मस् के सादृश्य पर) से जोड़ा है केवल थ से नहीं जिससे कि प्राकृत का विकास