________________
क्रियापद
363
सोहए (1,158), दीसए (1,186), किज्जए (1,186) आदि।
सन्देश रासक में भी प्रो० भयाणी ने 'भणे' (95, भणामि) 'दड्डए' (130) 'बड्डए' (120) आदि रूपों को आत्मनेपदी माना है जो कि छन्दपूर्त्यर्थ प्रयुक्त हुए हैं।
निष्कर्ष यह कि अपभ्रंश के युग आते ही लोगों को सामान्यतः इससे छुट्टी मिली किन्तु भाव कर्मणि प्रयोग में आत्मनेपद ने अपना स्वामित्व नहीं त्यागा। यह अवश्य है कि भावं कर्म में संस्कृत आत्मने पद का विकसित रूप ही पाया जाता है। जैसा कि डॉ० तगारे' ने भी लिखा है कि अपभ्रंश की धातुओं में सकर्मक एवं अकर्मक भेद प्राचीन भाषाओं की ही तरह रहा। इस कारण अपभ्रंश में धातुओं का रूप भाव कर्म को छोड़ कर अन्यत्र प्रायः परस्मैपदी ही रहा। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की धातुयें दश गणों में विभक्त थीं तथा उन धातुओं का रूप गण विशिष्ट विकरणों के अनुसार चलती थीं। किन्तु उन गणों में 'भ्वादि गण' सबसे बड़ा था। इस कारण सबसे अधिक रूप उसी' के प्रचलित हुए। शनैः शनैः गणों का ह्रास होने लगा। अपभ्रंश के युग में गणों का भेद मिट सा गया। भ्वादि गण ने सब पर अपना आधिपत्य जमाया। अन्य गण वाची धातुओं का रूप इसी की भाँति चलने लगा। उदाहरण-चेअइ < सं० चुरादि० चेतयति, रोअइ < सं० तुदादि रोदिति, दिव्वई < सं० दिवादि दिव्यति, हणइ < सं० हन्ति ।
संस्कृत के दसों गणों में सार्वधातुक विकरण विशिष्ट रूप होते थे। विकरण, धातु से भिन्न होता था। सार्वधातुक संज्ञा वाले लकारों में विकरण का आगम होता था। इसी से गणों का भेद ज्ञात होता था। अपभ्रंश में इन्हीं विकरण विशिष्ट धातु रूपों का भी ग्रहण किया गया जाणइ < जा+श्ना-जानाति, बुज्झइ < बुध + श्यन् = बुध्यति, करइ < कर + उ=(तनादि कृभ्यः उ:-पा० 3/1/79) करोति, सुणइ < सुनोति, श्रृ+श्नु=श्रृणोति, पडइ < पत्+शप्=पतति, ग्रथइ < ग्रथ+श्ना=ग्रथनाति, घ्रिइ < घ्रा+श्लु जिघ्रति ।