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क्रियापद
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ही • समझना चाहिये या प्रेरणार्थक रूपों के आधार पर समझना चाहिये | अपभ्रंश के धातु रूप मूलतः अकारान्त ही है। उनमें ध्वन्यात्मक विशेषता है या भाषात्मक पुनर्सजावट है । म० भा० आ० की क्रियाओं की सजावट का आधार है कर्तृवाच्य, भाववाच्य और कर्मवाच्य । इसके अतिरिक्त भूतकालिक कृदन्त तथा अनुकरणात्मक क्रिया का आधार भी यही है । इसकी पुष्टि ग्रियर्सन महोदय ने बड़े जोरदार शब्दों में जर्नल आफ दी बंगाल एशियाटिक सोसाइटी सन् 1924 में की है। इनके आतिरिक्त प्रेरणार्थक क्रियायें भी हैं जिसके आधार पर अकर्मक धातु भी सकर्मकता को प्राप्त कर लेती है। संस्कृत में णिच् प्रत्यय लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनती है। उसी प्रकार अपभ्रंश में भी आय या आव लगाकर प्रेरणार्थक क्रिया बनती है। इसी से हिन्दी में आना या वाना लगा कर प्रेरणार्थक क्रिया बनती है - पकना, पकाना, पकवाना, पढाना, पढ़वाना आदि ।
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अपभ्रंश के वर्तमान कालिक क्रियारूपों पर संस्कृत एवं प्राकृत का बड़ा जबर्दस्त प्रभाव है। भविष्यत्काल के रूपों का विकास प्राकृत से अधिक हुआ । विध्यर्थक लोट् लकार पर दोनों प्राकृत एवं संस्कृत का प्रभाव है । भूतकालिक कृदन्त क्रिया प्राकृत से प्रभावित होती हुई भी स्वतः विकसित हुई। अपभ्रंश के रूपों में स्वरात्मक विकास कई प्रकार से हुआ । ध्वनि की सहायता से रूपों में परिवर्तन लाना सरलता की ओर झुकना था । क्रिया रूपों के विकास पर सिंहावलोकन करते हुए यह भी ध्यान देना चाहिये कि हिन्दी की क्रिया में जो दुहरी क्रिया अर्थात् कृदन्त के साथ काल बोध करने के लिये जो सहायक क्रिया का प्रयोग हो रहा है उसमें अपभ्रंश की क्रिया ही कारण है ।
निष्कर्ष यह कि अपभ्रंश की धातुयें तद्भव अधिक हैं । हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों में प्राप्त यत्र-तत्र संस्कृत धातु युक्त क्रिया पदों को छोड़कर कुछ ऐसी भी क्रियायें पाई जाती हैं जो कि पूर्णतया तत्सम न होती हुई भी तत्सम के समीपस्थ हैं। कुछ धातुयें ऐसी भी हैं जो कि हैं तो तत्सम किन्तु वे अपभ्रंश के प्रत्ययों के साथ