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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
संयोजक स्वर
कुछ रूपों में रूप साधक प्रत्यय लगे हुए हैं। उनमें से कुछ बचा हुआ संयुक्त स्वर भी है-1. स्वरान्त प्रयोग बाद में होता है। 2. आज्ञार्थ वाचक, पुरुष वचन में स्वरादि प्रत्यय पहले होता है। 3. भविष्य काल के पहले पुरुष, एकवचन प्रत्यय के पहले संयुक्त स्वर नहीं रहता है किन्तु अन्यत्र रहता है। संयोजक स्वर के 'अ' का कहीं 'आ' 'इ' 'ऍ' का 'ए' होता है।
हेमचन्द्र के अपभ्रंश दोहों में मुहावरों का अभाव सा है। मुहावरों से भाषा में प्राणदायिनी शक्ति आ जाती है। अपभ्रंश में मुहावरों के अभाव के कारणों पर प्रकाश डालते हुए ज्यूल्स ब्लॉक ने अपने ला फ्रेज नोमिनल इन संस्कृत और लिण्डो आर्यन में बताया है कि संस्कृत महाकाव्यों में बहुत कम मुहावरों का प्रयोग हुआ है। अतः प्राकृत के बाद अपभ्रंश में भी मुहावरों का अभाव हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इन सारी दृष्टियों से विचार करने पर पता चलता है कि क्रिया रचना की पद्धति में क्रमिक विकास हुआ है। धातु रूपों का स्टेज प्राकृत और प्राचीन उत्तर भारतीय आर्यभाषा के धातु रूपों में से मध्यम मार्ग अपनाते हुए भारतीय आर्यभाषा की क्रिया पद्धति में नवीनता या सरलता लाने का सदा प्रयास किया गया है। जैसा कि प्राकृत में तथा उत्तरी आर्य भाषा की क्रियाओं में मुहावरों का स्थान साधारण रहा है ठीक उसी प्रकार अपभ्रंश की भी गति रही। अतः अपभ्रंश के धातुरूपों की क्रिया पद्धति प्राचीन भारतीय आर्यभाषा के वर्तमान कालिक
पर आश्रित है। कुछ धातु रूपों के आधार को प्रा० भा० क्रिया रूपों के आधार पर निर्माण में कल्पना का आश्रय
ये। तात्पर्य यह कि अपभ्रंश की क्रियाओं का रूप प्रा० ५. वर्तमान कालिक रूप तथा वर्तमान को पूर्ण बनाने वाले । पक कृदन्त क्रिया के आधार पर अवलम्बित है। धातुओं में सकम५ और अकर्मकता का भेद प्रा० भा० आ० के समान