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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
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अपभ्रंश में कुछ ऐसी धातुओं के रूपों का प्रयोग हुआ जो कि संस्कृत लकारों से बने हुए रूपों के प्रयोग हैं। जैसे- पेक्खइ < सं० प्रेक्ष्यति, देक्खइ < सं० द्रक्ष्यति ।
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उपर्युक्त धातु रूप कर्तृवाच्य के हैं। कर्तृवाच्य के धातु रूपों का परिवर्तन भी पाया जाता है। कर्मवाच्य का रूप संस्कृत में विकरण 'यक्' लगाकर आत्मनेपदी तिङ् का प्रत्यय होता था । अपभ्रंश में इसका भी विकसित रूप धातुओं में ग्रहीत हुआ उपपज्जइ < उत्पद + यक्= उत्पद्यते, धिप्पइ < घिप + य = घिप्यते, छिज्जइ < क्षिप् + य=क्षिप्यते, बुज्झइ < बुध् + य = बुध्यते इत्यादि ।
कृदन्तज रूपों से बने हुए धातुओं का भी ग्रहण हुआ - इट्ठइ < प्र+विश+क्त=प्रविष्ट, लग्गइ < लग्न = लग+क्त, सँदइ < सम्+स्त्र+क्त=संस्त्रत ।
डॉ० ग्रियर्सन" के अनुसार प्राकृत तथा अपभ्रंश में भी बहुत सी धातुयें ध्वनि के अनुकरण पर बनीं, जैसे- गुलगुलइ (हाथी के समान), सलसलइ (पौधा या जानवरों के आधार पर धीमी अवाज), किलकिलइ (पूर्ण प्रसन्नता के अनुसरण में) ।
संस्कृत में अकारान्त धातुओं से प्रेरणार्थक क्रियायें 'पुक' प का आगम करके क्रिया बनायी जाती थी जैसे- दापयति, दापितः, स्थापयति, स्थापितः, प्रापयति, प्रापितः इत्यादि । इसी 'पय' या 'आयं’ से पालि एवं प्राकृत के विकास के बाद अपभ्रंश में अव लगा कर धातुओं का प्रयोग किया गया, जैसे- दावइ (दा), थावइ (था स्था), विण्णवइ (वि+ज्ञा), चिन्तवइं (चिन्त), बोल्लावइ (बोल्लइ बोलना ); तोसावइ (तुष); पूर्वी अपभ्रंश में व की जगह ब होता है. परिभाबइ (परि+भू); दहाबिय (दह),
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डॉ० तगारे" का कहना है कि कभी-कभी धातुओं के मूल स्वर में वृद्धि भी हो जाती थी (मुख्यतया अ और इ, उ का गुण )