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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
रूप निर्धारित था वहीं पर अब एक विभक्ति के एक वचन या बहुवचन के लिये कई रूप बन चले।
__ अपभ्रंश में आते-आते विभक्ति रूपों में काफी सरलता हो गयी। विभक्तियों का स्थान शनैः-शनैः परसर्गों ने लेना आरम्भ कर दिया। डॉ० उदय नारायण तिवारी के शब्दों में 'अपभ्रंश' की निजी विशेषताएँ शब्द रूपों में अधिक स्पष्ट होती हैं। ध्वनिविकार में अपभ्रंश ने प्राकृत की परम्परा को आगे बढ़ाया, परन्तु शब्द रूपों के निर्माण में मध्य भारतीय आर्य भाषा के सरलीकरण एवं एकीकरण की प्रवृत्तियों को विकसित करने के साथ-साथ इसने कुछ अपनी नवीन प्रवृत्तियाँ प्रदर्शित की जो कि अर्वाचीन आर्य भाषाओं में पूर्णतया विकसित हुईं।
___ (1) अपभ्रंश ने अन्तिम व्यंजन का लोप कर सभी हलन्त प्रातिपदिकों को स्वरान्त बना लिया, यथा-विद्युत् > विज्जु, आत्मन् > अप्प, हिन्दी आप, जगत् > जग, मनस् > मण > मन, युवन् > जुब्बाण, मणहारि < मनोहारिन् आदि । व्यञ्जनान्त शब्दों का स्वरान्त में परिवर्तन कई प्रकार से हुआ होगा।
(2) कभी कभी अन्त्य व्यंजन में अ. अकारान्त नाम भी आता है। स्त्रीलिंग आ को इ भी होता है। जुवाण < युवान्, आउस < आयुष, अप्पण < आत्मन् ।
(3) ऋकारान्त नामों का ऋ < अर स्वरान्त वाले रूप भी पाये जाते हैं-पियर < पितृ, भायर < भ्रातृ, भत्तार < भर्तृ, सस < स्वसृ, माय, माइ < मातृ, भाइ < भ्रातृ।।
(4) अत्-अन्ती वर्तमान कृदन्त का वत् । अन्ती नाम के अन्त को वन्त भी हो जाता है। मत् का मन्त और वन्त दोनों होता है। कितनी बार प्राकृत के अनुसरण पर त् का रूप भी आता है। इस प्रकार के कृदन्तज हलन्त शब्द अपभ्रंश में स्वरान्त होते हैं। भयव < भगवत् ।
(5) स्त्रीलिंग आकारान्त, ईकारान्त नाम के अन्त्य स्वर का हस्व हो जाता है। कीळ, कीड < क्रीड़ा, सियय < सिकता, पडिम < प्रतिमा, पुज्ज < पूजा, मालइ < मालती, सयलिंघि < सौरन्ध्री. किंकरि < किंकरी, जिंभ < जिहा । कभी-कभी आ का इ भी हो जाता है, णिसि