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नवम अध्याय
अव्यय
वैसे शब्दस्वरूप जो तीनों लिंग एवं सातों विभक्तियों में एक से बने रहें अर्थात् जैसा उसका स्वरूप हो वैसा ही मध्य और अंत में भी बना रहे तथा जिनमें कोई विकास न हो उन्हें अव्यय कहते हैं। अव्यय शब्द, वाक्य और क्रिया के साथ संबंध रखता है। कहीं कहीं कोई कोई अव्यय प्रकृति के अर्थ को परिवर्तित भी कर देता है।
सदृशं त्रिषु लिंगेषु सर्वासु च विभक्तिषु ।
वचनेषु च सर्वेषु यन्न व्येति तदव्ययम्।।
संस्कृत, पालि एवं प्राकृतादि में नाम तथा सर्वनाम शब्दों के बाद तद्धित एवं कृदन्त के कतिपय प्रत्यय लगाने से अव्यय बन जाते थे। अपभ्रंश में भी यही स्थिति रही। यद्यपि संस्कृत में तथा अन्यत्र भी अव्यय के रूप नहीं होते किन्तु कभी कभी अव्यय विशेषण का भी काम करता है। यह क्रिया विशेषण तथा कारक विशेषण दोनों के लिये व्यवहृत होता है। जैसे-रामः द्रुतं धावति पद में 'द्रुतं' पद अव्यय है, पर 'धावति' की विशेषता बताता है; अतः 'द्रुतं' अव्यय क्रिया-विशेषण हुआ। इसी प्रकार अव्यय कारक विशेषण भी हो सकता है। पर यह स्मरण रखना चाहिए कि अव्यय के रूप नहीं होते। अपभ्रंश के अधिकांश अव्यय प्रायः संस्कृत के तद्भव हैं। प्राचीन संस्कृत वैयाकरणों ने अव्ययों का विभाजन वर्गों के अनुकूल नहीं किया था, परंतु आजकल आर्य परिवार की भाषाओं में वर्गीकरण किया जाता है। अतः इसी आधार पर वर्गीकरण करना उचित होगा।