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दशम अध्याय
रचनात्मक प्रत्यय
(तद्धित प्रत्यय)
डॉ० तगारे ने अपभ्रंश के रचनात्मक प्रत्ययों को दो भागों में विभक्त किया है=(1) प्रारम्भिक प्रत्यय (2) परवर्ती प्रत्यय। यह विभाजन वस्तुतः समस्त म० भा० आ० के लिये भी किया जा सकता है। प्रा० भा० आ० के अतिरिक्त बहुलांश प्रत्यय अपभ्रंश के अपने हैं और कुछ द्रविड़ परिवार से भी प्रभावित दीख पड़ते हैं। (1) प्रारम्भिक प्रत्यय
(1)-अ < सं०-क. खवणअ (क्षपणक), बप्पीहय (बाष्प-इह-क). विणुअ (विजुक), उट्ठ-बइस उठना बैठना ।
अ (अउ) स्वार्थे) < सं० क। लहुअ < लघुक, कलंबअ, < कदंबक, णंदउ < नंदक: मोरउ < मयूरकः ।
(क) नार्थक-अगलिअ, अचिंतिअ, अप्पिअ, अलहतिअ । (ख) सहार्थक-सकएण, सरोस, सलज्ज, ससणेही। (ग) प्रशस्तिक वाचक-सुअण, सुपुरिस, सुमिच्च, सुवंस ।
(2)-अ-आ < आअ < आका (स्वार्थे स्त्रीलिंग), कलअ < कलाआ < * कल चंडिआ < चंडिआअ < * चंडिकाका।
(3)-अण < प्रा० भा० आ० अन + अक प्रत्यय क्रियाओं में प्रयुक्त होता है। कुछ रूप स्पष्ट रूप से प्रा० भा० आ6 की संज्ञा का विकसित रूप है। उक्कोवण (उत्कोपन), पयदिण (प्राक्तन),-इण < अन स्वर परिवर्तन हो जाता है-अविखण (अवेक्षण)।