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रचनात्मक प्रत्यय
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23. त्त का प्रयोग त्व प्रत्यय की जगह होता है। बहुधा सम्प्रदान कारक में त्ताए का प्रयोग होता है पुप्फत्त < पुष्पत्व, पुमत्त < पुंसत्व, माणुसत्त < मनुष्यत्व, सीयत्त < शीतत्व।
24. त्तण प्रत्यय का प्रयोग त्व और ता के भाव अर्थ में होता है-वड्डत्तण=बड़ाई, धम्मत्तण <* धर्मत्वन्, कुडिलत्तण, तुंगत्तण, थिरत्तण, गरुयत्तण, गूढत्तण, भिच्चत्तण, मूठत्तण, सयणत्तण, पत्तत्तण, तिलत्तण,
त्तण प्रत्यय के साथ कभी य भी जुड़ता है-थिरत्तणय, वड्डत्तणय, तिलत्तण,
अपभ्रंश में त्तण में त्त की जगह प्प भी होता था-वड्डुप्पण-वड्डत्तण < * वड्रत्वन् । गहिलत्तण, गहिलप्पण, सिद्धत्तण।
25. क प्रत्यय का प्रयोग स्वार्थिक होता है। इसका कभी अ, य और उ या इय आदि हो जाता है। कभी कभी दो क प्रत्यय भी जोड़ा जाता है-जैसे-बहुअय (हे० 2,164); लहुअ < लघुक, णंदउ (< नंदक), जन्तिअउ, रहिअउ, थविअउ, फुल्लिअउ, कहिअउ, तिय (स्त्रिाक) क का ग-गेहेअन्तग,
क्य का क्क हो जाता है-पारक्क में क्य प्रत्यय राइक्क < राजकीय-इक्य प्रत्यय गोणिक्क आदि ।
ख-(सुख, दुख) नवख (-खी) नक्खी।
26. ड संस्कृत < त् प्रत्यय का प्रयोग भी स्वार्थे होता है किन्तु इससे अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता। इस ड प्रत्यय के बाद कभी कभी अ=क प्रत्यय भी देखने में आता है-हे० 8/4/429 और 430 कण्णडअ < कर्ण, हिअ डउं, हे० 8/4/432-दव्वडअ < द्रव्य, 8/4/419, 1-देसड, 4/418, 6-देसडअ < देश, दोषडा < दोष, 4/379,1-माणुसड < मानुष, मारिअड < मारित, 4/422, 1 मित्तड < मित्र, रण्णडअ < अरण्य 4/38 हे० 8/4/419,1 हत्थड और हत्थडअ < हस्त, 8/4/422 - हिअडा, हिअड < * हृद < हृद् 4/414, 2-मणिअड < मणि-क+ट हैं < मणिकट । इसमें अड प्रत्यय नहीं है। स्त्रीलिंग के अन्त में-डी आता है-4/431-णिद्दडी < निद्रा, हे० 4/432 सुवत्तडी < श्रुतवाती। संस्कृत में जिन शब्दों के इ और