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हेमचन्द्र के अपभ्रंश सूत्रों की पृष्ठभूमि
ई लगाकर स्त्रीलिंग बनाया जाता है उनके अन्त में अपभ्रंश में अडी भी होता है-गोरडी < गौरी, 4/424-बुद्धडि < बुद्धि; भुम्हडि < भूमि, हे० 4/422, 22 मब्मीसडी < मा भैषीः; हे० 8/4/430-रत्तडी < रात्रि, हेम० 8/4/414, 2-विभन्तडी < विभ्रान्ति । क प्रत्यय के साथ भी यह प्रत्यय आता है-धूलडिआ < * धूलकटिका < धूलि। पिशेल का कहना है कि यहाँ अड प्रत्यय नहीं हुआ है, मध्यस्थ प्रत्यय दिखाई देता है। ड तो अपभ्रंश बोली की अपनी विशेषता है, दूसरे प्रत्ययों के साथ-क रूप में भी जोड़ा जाता है। हेम० 4/430,3 बाह बहुल्लडा < बाहाबल तथा बाह बहुल्लडअ में उल्ल की यही स्थिति है अर्थात अन्तिम उदाहरण में-उल्ल+ड+क आये हैं।
27. तक-तिक-परिमाण वाचक विशेषण-प्रा० एत्ति (क) अप०-तत्तक।
28. तय एवि-एत्तवि, जेत्तंवि, तेत्तवि। 29. तम-उत्तिम उत्तम। 30. ता-भतिता, सुन्नसहावता, ताहे-एत्ताहे (अभी)। 31. त्र, त्रिक, त्रिका (स्त्री०) स्थान का क्रिया विशेषण-परत्त ।
32. डेत्तुल-एत्तुल,-एत्तुल, केत्तुल, तेत्तुल, जेत्तुल-संस्कृत में पूर्वोक्त प्रत्यय की जगह तडित अतः प्रत्यय लगाकर इतः, कुतः, यतः, ततः रूप होता था-हिन्दी यहाँ, वहाँ, कहाँ इत्यादि होता है। यह अव्यय रूप की तरह प्रयुक्त होता है।
33. दु-राह प्रत्यय पूर्वी अपभ्रंश में प्रयुक्त होता है रूक्खदु (* रुक्ष) वृक्ष, तरूणीदु (तरूणी), भूमिदु (भूमि), वण-दु (वन) अन्यत्र इसका प्रयोग नहीं पाया जाता है।
34. ध प्रत्यय क्रिया विशेषण समय और स्थान के लिये प्रयुक्त होता है-इध, ध को ह होकर महाराष्ट्री में इह प्रा०-अह, जह, तह (इहइ रडन्तउ जाइ)।
35. नी-इनी (स्त्री०) भिक्खुनी, सिस्सिनी।